//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
जनसंदेश टाइम्स लखनऊ में प्रकाशित |
चलो छोड़ो, जाने भी दो, फालतू की चिल्लपों मचा रखी है, घर की ही सी तो बात है, इस तरह कोई घर की ज़रा-ज़रा सी बातें सड़कों पर ले जाता है क्या! बच्चे हैं, नादान हैं, नासमझ हैं, लाड़ प्यार में बिगड़ गए हैं सुधर जाएँगे! यूँ भी उन्होंने किया क्या है ? ऐसा कौन सा पाप कर दिया! किसी की गरदन तो काट नहीं दी, ना किसी के साथ बलात्कार किया है, बस वही किया है जो सड़क से संसद तक हर कोई करता है, कोई कम, कोई ज़्यादा, करता मगर हर कोई है। ना करे तो खाना हज़म न हो, रात को नींद न आए, हर वक्त बेचैनी का आलम रहे। आखिर यह सदियों से खून की तरह हमारी रगों में दौड़ रहा है।
जब कोई चीज़ सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक स्तर पर सर्वमान्य, सर्वस्वीकृत, सर्वग्राह्य हो ही गई है तो दकियानूसी रूढ़ीवादी बूढ़ों की तरह उसके विरोध में छाती पीटने से क्या फायदा। वह था, है और रहेगा। इसे मानो, मान-सम्मान दो, इज्ज़त करो उसकी। जब अपने जीवन से उसे उखाड़ फेंक नहीं सकते तो अपना ही लो। तुम्हारे बाप का क्या जाता है।
मैं तो कहता हूँ क्यों न इसे संवैधानिक कर दिया जाए, फिर सब लोग मिल-जुल कर इसे किया करें। कब तक कोई चीज़ गैर कानूनी रूप से की जाती रहेगी, अच्छा लगता है क्या ? जब कुएँ में ही भाँग पड़ी हुई हो तो फिर फालतू का नाटक करने से क्या फायदा? करना क्या है, कानून की किताब में जहाँ कहीं भी ‘वर्जित’ लिखा है उसे खुरच कर मिटा देना है। इसके समर्थन में कानूनी संशोधनों की नए सिरे से रचना करना है। इसके प्रोत्साहन के लिए, इसके नव पल्लवन-पुष्पन के लिए, इसके समुचित विकास और उत्थान के लिए नई-नई योजनाएँ बनाना है, और इसके लिए प्रावधानित बजट को इसी के माध्यम से खा जाना है। इसके प्रति अपनी प्रतिबद्धताएँ सार्वजनिक करना हैं, इस तरह लुके-लुके छुपे-छुपे इसका पारायण और कर्मकांड आखिर कब तक किया जाएगा ? खुलकर इसका वंदन-अभिनन्दन करने का समय आ गया है, लोग जिसे ‘भ्रष्टाचार’ के नाम से जानते हैं, जी हाँ जनाब मैं ‘भ्रष्टाचार’ की बात कर रहा हूँ।
जब कोई चीज़ सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक स्तर पर सर्वमान्य, सर्वस्वीकृत, सर्वग्राह्य हो ही गई है तो दकियानूसी रूढ़ीवादी बूढ़ों की तरह उसके विरोध में छाती पीटने से क्या फायदा। वह था, है और रहेगा। इसे मानो, मान-सम्मान दो, इज्ज़त करो उसकी। जब अपने जीवन से उसे उखाड़ फेंक नहीं सकते तो अपना ही लो। तुम्हारे बाप का क्या जाता है।
मैं तो कहता हूँ क्यों न इसे संवैधानिक कर दिया जाए, फिर सब लोग मिल-जुल कर इसे किया करें। कब तक कोई चीज़ गैर कानूनी रूप से की जाती रहेगी, अच्छा लगता है क्या ? जब कुएँ में ही भाँग पड़ी हुई हो तो फिर फालतू का नाटक करने से क्या फायदा? करना क्या है, कानून की किताब में जहाँ कहीं भी ‘वर्जित’ लिखा है उसे खुरच कर मिटा देना है। इसके समर्थन में कानूनी संशोधनों की नए सिरे से रचना करना है। इसके प्रोत्साहन के लिए, इसके नव पल्लवन-पुष्पन के लिए, इसके समुचित विकास और उत्थान के लिए नई-नई योजनाएँ बनाना है, और इसके लिए प्रावधानित बजट को इसी के माध्यम से खा जाना है। इसके प्रति अपनी प्रतिबद्धताएँ सार्वजनिक करना हैं, इस तरह लुके-लुके छुपे-छुपे इसका पारायण और कर्मकांड आखिर कब तक किया जाएगा ? खुलकर इसका वंदन-अभिनन्दन करने का समय आ गया है, लोग जिसे ‘भ्रष्टाचार’ के नाम से जानते हैं, जी हाँ जनाब मैं ‘भ्रष्टाचार’ की बात कर रहा हूँ।
ये आपने सही कहा।
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ब्लॉगवाणी: एक नई शुरूआत।
सर!बहुत देर बाद अब जा कर मैं आप का ब्लॉग खोल पाया हूँ.
जवाब देंहटाएंबहुत सही व्यंग्य किया है आपने.
सादर
लगता है, इस व्यापकता को भी लोकतन्त्र अंगीकार करके ही दम लेगा।
जवाब देंहटाएंप्रमोदजी सिर्फ भ्रष्ट्राचार को ही क्यों संवैधानिक बनाया जाये . लोकसेवक को जनता की सेवा करनी पड़ती है.इसलिए बेईमानी, जबरदस्ती किसीका अधिग्रहण , बलात्कार अय्याशी इन सब बातों को भी
जवाब देंहटाएंसंवैधानिक बनाया जाये. ताकि हम जनता के सेवक जनता का अच्छी तरह ख्याल रख सकेंगे. आपके अनमोल क्रांतिकारी सुझाव के लिये हम सब लोकप्रतिनिधि आपको राज्यसभा मे हमारे कोटे से चुनना चाहते है. और कोई चाहत हो तो बिना संकोच हमें बता दे उसका भी हम इंतजाम करेंगे. किसी को कानोकान खबर तक नही होगी भाभी को भी नही होगी.. आपका जनसेवक INDIA