बुधवार, 13 अप्रैल 2011

आज़ादी की लडाई


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//

          वे बोले-‘‘भाई साहब आपको सहयोग देना ही पड़ेगा, आप इन्कार नहीं कर सकते, वर्ना अपनी-तुपनी दोस्ती टूट गई समझो।’’
          मैंने कहा-‘‘जनाब, घर के अन्दर घुसे आपको कई सेकण्ड हो चुके हैं आपने अब तक कोई सहयोग माँगा ही नहीं है, मैं आखिर इन्कार कैसे कर सकता हूँ।’’
          वे बोले-‘‘यह भी बजा फरमाया आपने। बात दरअसल यह है कि दूसरी आज़ादी की लड़ाई प्रारम्भ हो चुकी है, आप......’’
          उनकी बात पूरी होने से पहले ही मैंने चट आश्चर्य प्रकट कर डाला और कहा-‘‘ अच्छा, पहली वाली आज़ादी को क्या हुआ!
          वे हड़बडाते हुए बोले-‘‘हमारा मतलब है आज़ादी की दूसरी लड़ाई प्रारम्भ हो चुकी है।’’
          मैंने फिर कहा-‘‘वो तो मैं समझ गया, मगर पहले, पहली आज़ादी के बारे मैं नक्की कर लेना चाहिये कि वह कहा गई, वर्ना ऐसा हो कि पहली के रहते हुए आप दूसरी भी ले आओ, सौत-सौत एक जगह रह नहीं पाती है, बहुत कलह करती हैं।’’
          वे हँसने लगे-‘‘ही ही ही ही, आप व्यंग्यकार लोग भी खूब मज़ाक कर लेते हैं।’’
          मैंने पूछा-‘‘बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ!’’
          वे बोले-‘‘अरे साहब, हम तो सरकारी अफसरी में सेवा करवा-करवाकर अघा गए, इसलिये अब देश सेवा की सोची है। देश गले-गले तक भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है, इसे बाहर निकालना ज़रूरी है, इसलिए आप भी कृपया इस लड़ाई में कूँद पड़िये।’’
          मैंने कहा-‘‘बिल्कुल बिल्कुल! बताइये कहाँ हैं जंपिंग किट! हथियार, गोला बारूद की कुछ व्यवस्था हुई या बात करें किसी से ?’’
          वे बोले-श्रीमानं, हम गाँधी जी के रास्ते पर चलकर दूसरी आज़ादी लाएँगे।
          मैंने कहा-‘‘देखिए पहली भी गाँधी जी के रास्ते पर चल कर ही आई थी, उसे क्या हुआ आप बता नहीं रहे! मुझे भय है कि अपन लड़-लुड़ाकर इधर दूसरी आज़ादी ले आएँ और उधर     पहली वाली भी बाहर निकल आए, बड़ी समस्या हो जाएगी।’’
वे उसी उत्साह में बोले-‘‘वाह! क्या प्रश्न उठा दिया आपने। हमने तो कभी इस बिंदु पर विचार ही नहीं किया।’’
          मैंने कहा-‘‘फिर! आप ऐसे आधी-अधूरी तैयारी के साथ कैसे गए मुझसे सहयोग माँगने! जाइये, पहले अपने नेताओं से पूछकर आइये कि पहली आज़ादी को क्या हुआ, तब आकर हमसे बात करिये।’’
          वे उस वक्त तो अपना सा मुँह लेकर चले गए, मगर दूसरे दिन थके-हारे कदमों से चलते हुए फिर चले आए और निराशा के साथ बोले-‘‘अब रहने दीजिए, दूसरी आज़ादी की लड़ाई खत्म हो चुकी है। सरकार ने हमारी सारी माँगें मान ली हैं, अब हमें आपके सहयोग की कोई आवश्यकता नहीं।’’
          मैंने उन्हें बधाई देते हुए फिर पूछा-‘‘भई, आखिर पहली आज़ादी का क्या हुआ कुछ पता चला!’’
          वे बुरी तरह भड़क गए और लगे चिल्लाने-‘‘भाड़ में गई पहली आज़ादी, हमें क्या पता! पड़ी होगी कहीं किसी की तिजोरी में। हमने क्या दुनिया भर का ठेका ले रखा है जो आज़ादियों का हिसाब रखते फिरें!’’
          वे पॉव पटकते हुए चले गए आज़ादी की दूसरी लड़ाई का उनका खुमार उतर चुका था। 

5 टिप्‍पणियां:

  1. पहली का तो पता नहीं..मगर यह वाली झमेले में फंसती नजर आ रही है....

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  2. बहुत सही व्यंग्य किया है सर!


    सादर

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  3. बहुत सुंदर पर जरा विरोध है आपसे पहली वाली आजादी तो हर जगह है चोरो को चुराने की आजादी से लेकर नेताओ को कमाने की आजादी तक हा यदी आप ये कहते वो आजादी गलत लोगो के हाथ पड़ गयी तब मै भी आप के साथ नारा लगाता ।

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  4. निष्कर्ष निश्चित कर लिये जायें तब सोचा जाये लड़ाई के बारे में।

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  5. बेहतरीन चोट. 'आजादियों' के मायने खंगाल के रख दिए.

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