//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
आजा़दी के बाद कुछ सालों तक देश को गुरबत से बाहर निकालने के लिए बड़े-बड़े राजनैतिक विचारों की पोटलियाँ पटक-पटक कर लोग चुनाव जीत जाते थे। उसके बाद कुछ सालों तक कभी पंचवर्षीय योजनाओं से देश की तस्वीर पलटने, कभी गरीबी हटाने के नाम पर, कभी समाजवाद के सब्ज़बाग दिखाकर चुनाव जीते जाने लगे। फिर कुछ समय हुआ फीलगुड और ‘चौतरफा’ विकास की ‘एकतरफा’ बातें झिला-झिला कर चुनाव जीतने की कोशिशें चलीं। अब इस सब प्रपंच की कोई ज़रूरत नहीं रह गई है। आजकल जो सबसे ज़्यादा जरूरी बात है वह यह कि आपकी पार्टी में कुछेक मुँहफट, बड़बोले, बदतमीज किस्म के लोगों का जमावड़ा हो जो चुनावी मंचों पर, प्रेस कांफ्रेंसों में विरोधी पार्टियों के धाकड़ नेताओं की लू उतार सके, मीडिया और प्रेस को आकर्षित कर बडे़-बड़ों की चुन-चुन कर छीछालेदर कर सके।
मौजूदा नेताओं के सौजन्य से जल्दी ही ऐसा समय आने वाला है जब छुटभैये नेता चुनावी मंचों पर खड़े होकर एक-दूसरे की माँ-बहन से निकट रिश्ते का ऐलान किया करेंगे। सार्वजनिक मंचों से गाली-गलौच और अपशब्दों की ऐसी झड़ी लगेगी मानों चुनाव में हार-जीत इसी बात पर निर्भर हो कि कौन भरपूर निर्लज्जता से खड़ी-खड़ी अश्लील गालियों की बौछार कर सकता है, योग्य उम्मीदवार उसी को माना जाकर चुन लिया जाएगा।
ग्रास रूट लेवल पर भी अब भोले-भाले समाजसेवी किस्म के राजनैतिक कार्यकर्ताओं का कोई काम नहीं रह गया है जो साफ-सुथरा कुर्ता-पजामा पहनकर, गाँधी टोपी धारण कर वोटरों से माताजी, बहनजी, भाईसाहब और काका, चाचा, मामा का रिश्ता बनाकर ‘‘वोट हमी को देना’’ की विनम्र अपील करते घूमते थे। अब चुनाव जीतने के लिए पार्टी में टपोरी किस्म के कार्यकर्ताओं का रिक्रूटमेंट ज़्यादा ज़रूरी है जो धौंस-दपट से वोटों की झड़ी लगा दें।
देश के वोटर भी आनंद ले रहे हैं। नौंटकी में जिस तरह भाँड दर्शकों को हँसाता है, फिल्मों, टी.व्ही. सीरियलों में जिस तरह फूहड हास्य कलाकार कमर मटकाकर लोगों का मनोरंजन करता है और जिस तरह सर्कस का जोकर तमाशबीनों को हँसा-हँसा कर लोट-पोट कर देता है, उसी तरह आजकल वोटर नेताओं की तू-तू मैं-मैं से, खुश हो-हो कर ताली पीटता है। किसी को न राजनीति से मतलब है न बाजनीति से।
दंगलिया चुनाव..
जवाब देंहटाएंbahot badiya
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bahot badiya...
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