//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
वे ज़ार-ज़ार रोये जा रहे थे। मैंने पूछा-‘‘क्या हुआ मित्र, इस तरह मातम क्यों मना
रहे हो?’’ वे चटके-‘‘तो क्या करूँ? और कोई होता तो घर पर पथराव कर आता उसके, मगर जब अपने ही भावनाओं को आहत
करने पर उतर आएँ तो बैठकर मातम न मनाऊँ तो क्या करूँ?’’
वे सिसकते हुए बोले-‘‘बताइये भला, पॉव छूने की संस्कृति बंद करने को कहा जा रहा है। भाईसाहब,
कसम खाकर कह रहा
हूँ, मैंने
ज़िन्दगी भर कुछ नहीं किया सिवा पॉव छूने के। पॉव छू-छू कर ही मैं देखिए कहाँ से
कहाँ पहुँच गया! लोग मेरी पॉव छुवाई के कायल है। बड़े-बड़े काम जो एक स़े एक
प्रभावशाली और ताकतवर लोग नहीं करा पाते मैं पॉव छूने के अपने विशिष्ट कौशल से पलक
झपकते ही करा लाता हूँ। मानते हैं लोग कि है कोई पॉव छूने वाला। मगर अब कहा जा रहा
है कि हम पॉव छूना ही बंद कर दें! बताइये भला ये कहाँ का न्याय है?’’
वे बोलते रहे-‘‘और फिर पॉव ही तो छू रहे हैं, कोई तलवे तो चाट रहे नहीं हैं किसी के! न दुम हिला रहे हैं
किसी के दरबार में जाकर! हमारे खानदान तक में किसी ने ये काम नहीं किया। अरे जब एक
खास अदा से झुककर पॉव छू लेने भर से बड़े-बड़े काम हो जाते हैं तो फिर यह चाटा-चूटी,
दुम हिलाई की
ज़रूरत ही क्या है हमें?’’
‘‘कोई बता दे जो कभी किसी की चम्मचगिरी की हो या कभी किसी ने हमें किसी की जी
हुजू़री करते हुए देखा हो। अरे लोग तो चौबीस घंटे आला कुर्सियों के सामने पूरे के
पूरे दुम बने खड़े हिलते रहते हैं कि मौका लगे तो कोई छोटा-मोटा स्वार्थ ही साध लें
जाएँ, मगर
हम कभी इस टुच्चाई में नहीं पड़ते। ठसक के साथ पॉव छूते हैं और बड़ी से बड़ी डील करा
लाते हैं। परन्तु अब तो रोजी-रोटी पर ही संकट आ खड़ा हो गया है भाईसाहब, पता नहीं किसने उन्हें
यह सलाह दे दी।’’
चोरी-चकारी नकबजनी करने वालों से तो कुछ कहा नहीं जा रहा! हम से कहा जा रहा है
जैसे हम किसी का हक छुड़ाकर खा रहे हों। पीढ़ियों से चले आ रहे, हमारी रग-रग में बसे इस
पारम्परिक संस्कार को ज़मीदोज़ करने का आखिर क्या अर्थ है बताइये भला। अगर लोगों ने
इसे सीरियसली ले लिया तो भारी समस्या हो जाएगी। न कोई पॉव छूएगा न आशीर्वाद देगा।
कसम से भाईसाहब हमें अगर आशीर्वाद मिलना बंद हो गया तो हमारे तो बीवी-बच्चे तक
भूखों मर जाएंगे।
सच बात तो यह है भाईसाहब, अब इस उम्र में पॉव छूने के अलावा कोई और काम-धंधा आता भी
तो नहीं, आता
होता तो कमर के स्पांडेलाइटिस के बावजूद काहे को दूसरों के पॉवों में झुकते फिरते?
सोचते हैं,
क्यों न जूता बनकर
परमानेन्टली किसी के पॉव में डल जाएँ, न उन्हें आबजेक्शन होगा न हमारे काम रुकेंगे। पॉव
छूने की संस्कृति भी लगे हाथ दफा हो जाएगी।
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