//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
स्मार्ट गजेट युग के
स्मार्ट बच्चे इन दिनों अपने माँ-बाप को तिर्यक दृष्टि से तो दादा-दादी को खा जाने
वाले दृष्टि से देख रहे हैं, क्योंकि टी.वी पर गा-गा कर उन्हें
समझाया जा रहा है -‘‘नो चिपकोइंग, बेच दे बेच दे। पुराना जाएगा
तब नया आएगा।’’ मगर मैयो-बाप हैं कि बीसियों साल पुराने टी.वी-फ्रिज
से फेवीकॉल के जोड़ की तरह चिपके हुए हैं और दादा-दादी तो बाबा आदम के ज़माने के
सामान को गले लगाए बैठे हैं, मानो साथ ले जाने की पूरी तैयारी
हो।
स्मार्ट बच्चे चाहते हैं घर
में मौजूद पुराना-धुराना सब कुछ बेच दिया जाए। उन्हें चाहिए नए ज़माने के डिज़ाइनर
आयटम जो रोज़ाना दस-बीस की तादात में कंपनियों द्वारा मार्केट में उतारे जाते हैं
और चित्त खेचू विज्ञापनों के ज़रिए उन्हें खरीदने के लिए लोगों को उकसाया जाता है।
दस-बीस साल तो बहुत ही
लम्बी अवधि है, आजकल तो हफ्ते-पन्द्रह दिनों में ही खरीदी हुई चीज़
पुरानी हो जाती है। मुमकिन है एक दिन वो भी आए कि बंदा सुबह शोरूम से कुछ खरीदकर
लाए और शाम होते तक उसे पुराना बताया जाकर बेच डालने के तकादे आने लगें। यही नहीं
बल्कि आप शोरूम पर किसी लक्झरी आयटम का भुगतान करके पीछे मुड़ें तो बाहर
बेचने-खरीदने वाली कंपनी भांगड़ा करती, गाती हुई मिले-‘‘पुराना
हो गया, पुराना हो गया, बेच दे बेच दे।’’
क्या करें बेचारी लक्झरी
सामान बनाने वाली कम्पनियाँ? बरसों तक घर-घर माल पहुँचा देने के
बाद वह कारखाने में ताला डालकर तो बैठ सकती नहीं! रोज़ नए-नए हथकंडे अपनाकर अपना
माल खपाना उनकी राष्ट्रीय मजबूरी है। किसी के घर में रोटी, कपड़ा,
मकान, दवा-पानी हो न हो, टी.वी
फ्रिज ज़रूर होना चाहिए। इसलिए पहले बैंकों, फायनेंस
कम्पनियों से उधार दिलवा-दिलवाकर उन्होंने अपना माल ठिकाने लगाया, अब
जब घर-घर में लक्झरी आयटमों के गोदाम बन गए हैं तो उसको ‘‘बेच दे
बेच दे’’ की हाक लगाई जा रही है। पुराने कबाड़ को फटीचरों के घर में
ट्रांसफर किया जाना जरूरी है, ताकि असल ग्राहक देवता के घर में
नया सामान रखने के लिए जगह बनाई जा सके। फटीचर तो नया कभी खरीदेगा नहीं, और
असल ग्राहक पुराने से चिपका रहेगा तो नया खरीदने कभी आएगा नहीं। हाँ एक बार उसने
पुराना बेचने का प्रण कर लिया तो वह नया खरीदेगा ही खरीदेगा। तो, दरअसल राग ज़रूर ‘‘बेच
दे बेच दे’’ का अलापा जा रहा है, उसका असल
मतलब है-‘‘खरीद ले खरीद ले।’’
कबाड़ियों का तबका देश में
शताब्दियों से ‘‘बेच
दो बेच दो’’ की
गुहार लगाता घूम रहा है । वह घर-घर से पुराना कबाड़ बटोरकर नया कबाड़ खरीदने की वस्तुस्थिति
निर्मित करता है। ऐसे ही टी.वी पर ‘‘बेच
दे बेच दे’’ की
पुकार लगाने वाली कंपनियाँ स्मार्ट कबाडियों की भूमिका निभाते हुए हर पुरानी चीज़
बेच डालने की लिए लोगों का भड़का रही हैं। हमारे बच्चे भी इन कम्पनियों के एजेंट से
बनकर दिन-रात माँ-बाप प्राण खाते रहते हैं, ‘‘ये बेच दो, वो बेच दो।’’
मतलब यही है ‘‘ये
खरीद लो, वो खरीद
लो।’’ इन
कंपनियों का बस चले तो वे इन स्मार्ट बच्चों के पुराने हो गए ‘माँ-बाप’ और ‘दादा-दादी’ को भी बेच डालने का प्लान
ले आएँ। मगर मजबूरी यह है कि कोई बड़ी से बड़ी कंपनी भी नए-नवेले डिजाइनर ‘माँ-बाप’ और ‘दादा-दादी’ नहीं बनाती न!
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