//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
विशेषज्ञता और शोध-अनुसंधान
के मामले में हम चाहे कितने भी पिछड़े हुए हों, मगर ढाँचागत विकास में कोई माई का
लाल हमारा सानी नहीं है। इन दिनों हमारी तकनीकी कुशाग्रता का जो नमूना हमारी ‘सड़कों’ पर नज़र आ रहा है,
उसे देखकर दुनिया का
कोई भी विकसित देश हमसे रश्क कर सकता है। हमारे लिए तो हमारे इंजीनियरों, ठेकेदारों का यह अद्भुत्
‘कौशल’ और ‘कृतित्व’ घर की मुर्गी के ‘कौशल’ और ‘कृतित्व’ की तरह है, मगर हमारी सड़कों की यह
अनोखी ‘धज’ देखकर दुनिया भर के सड़क विशेषज्ञ
और शोध अनुसंधानकर्ता अवश्य ही दाँतों तले अपनी उँगलियाँ चबा लेंगे।
यह एक महान
वैज्ञानिक चमत्कार है कि हमारी सड़कों पर कभी कोई हाथ में गैती-कुदाल लिये दिखाई नहीं
देता, बावजूद इसके उनके सीने पर अलग ‘साइज़’ और ‘डिजाइनों’ के गढ्ढों की भरमार दिखाई देती है। यह एक विकट तकनीकी रहस्य
है कि आखिर हम ऐसी अद्भुत ऊबड़-खाबड़ सड़कें बनाते कैसे हैं! कहाँ से हमारे हाथ यह गज़बनाक
तकनीक लग गई है जिससे रातों-रात हमारी ताज़ातरीन नई-नवेली सड़कों पर ऐतिहासिक महत्व के
दर्शनीय गढ्ढों का अविर्भाव हो जाता है, जिनमें दो-चार बार गिरे बगैर हम पर भारतीय नागरिक होने
का ठप्पा लग ही नहीं सकता।
विदेशों
से घूमकर आने वाले भाग्यशाली लोग बताते हैं कि वहाँ की सड़कें कैसी चिकनी, चौड़ी-चकली और सपाट होती हैं।
उन पर गाड़ी दौड़ाते हुए पेट का पानी तक नहीं हिलता। अर्थात दुनिया भर की खोजें करने
वाले पश्चिमी वैज्ञानिक पेट का पानी हिलाने की मामूली तकनीक भी अब तक नहीं खोज पाए
हैं। हमने भी शाणपंथी से अब तक अपनी वह स्वदेशी तकनीक किसी को नहीं दी है, जिससे हम
सड़क में गढ्ढे और गढ्ढों में सड़क का परस्पर उलझा तानाबाना बुनते हैं। देखा जाए तो सड़क
बनाने के पुराने फामूलों पर चल रहे तमाम विदेशी मुल्कों को यह गढ्ढा ज्ञान बेचने का
सही समय अब आ गया है। गढ्ढों एवं गढ्ढेदार सड़कों के निर्माण की भारतीय टेक्नॉलॉजी
का पेटेंट तुरंत करवाकर हमें उन मुल्कों से ‘बारगेनिंग’ शुरू कर देनी चाहिये जिन मुल्कों की जनता बिना हिचकोलों
वाली सड़कों पर चल-चल कर अघा गई है। शीघ्रता की जाए, कहीं ऐसा ना हो कि हमारी इस अनोखी
तकनीक का पेटेंट कोई और मुल्क करा ले और हम टापते रह जाएँ।
सड़कों की
दुर्दशा और उन पर कीचड़ और गंदगी से लबरेज़ गढ्ढों को देखकर हम लोग हमारे होनहार सड़क
निर्माताओं, इंजीनियरों और ठेकेदारों के साथ गाली-गुफ्तार मारपीट तक करने पर उतारू हो जाते
हैं, जबकि हमें चाहिए कि हम उनकी प्रतिभा को साष्टांग दण्डवत करें, जो न केवल हमें गढ्ढों में
गिरने का सुखद अवसर प्रदान करते हैं बल्कि विदेशी पयर्टकों को आकर्षित कर देश का
विदेशी मुद्रा भंडार भी बढ़ाते हैं।
हमने समय रहते यदि हमारी इन राष्ट्रीय
प्रतिभाओं को उचित मान-सम्मान नहीं दिया तो ये प्रतिभाएँ सुदूर विदेशों की ओर पलायन
कर जाएँगी, और अपनी इस तकनीक से दूसरे मुल्कों की जनता के पेट का पानी हिलाएंगी। पलायन का
नतीजा यह होगा कि विशेषज्ञों के अभाव में हम चिकनी-चुपड़ी सड़कें बनाने को मजबूर हो
जाएंगे और उन्हीं सड़कों पर सर पटक-पटक कर मातम करते रह जाने के अलावा कुछ नहीं कर
पाएंगे।
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