शुक्रवार, 15 मई 2020

कोरोना के साथ रहना सीखना होगा


//व्‍यंग्‍य-प्रमोद ताम्बट//
बोल रहे हैं कोरोना के साथ रहना सीखना होगा। अब बोल रहे हैं, पहले ही बोल देते। क्यों डेढ़ महीने से देश को बंद कर रखा है। पहले तो बड़े गा-गाकर बोलते रहे, कोरोना को हराना है कोरोना को हराना है, अब अचानक बोलने लगे कोरोना के साथ रहना सीखना होगा। हम तो सीख ही लेते। जैसे दुनिया भर के वायरस बैक्टेरिया के साथ रहना सीख कर बैठे हैं वैसे ही कोरोना के साथ भी रहना सीख लेते। ,?
घर में छिपकली, मकड़ी, काकरोज, चूहों के साथ रहना सीखते है न? कीट-पतंगों और खटमल-मच्छरों के साथ भी रह लेते हैं। कोरोना कौन सी बड़ी चीज़ है, उसके साथ भी रहना सीख लेंगे। ऐसी कोई बहुत बड़ी बात नहीं है।
बड़े-बड़े बालों के झुरमुट और कौवे के घोंसलों सी दाढ़ी के साथ कोई कितने दिन रह सकता है? लेकिन इस लॉकडाउन में हमने रहना सीख लिया है। इस भयानक रूप में देखकर आस-पड़ोस के बच्चे हमसे डरने लगे हैं। शोड़षियाँ हिकारत की नज़रों से देखने लगी हैं। लेकिन हमने ऐसे अघोरी बाबाओं की तरह रहना सीख लिया है। लॉकडाउन दो-चार पखवाड़े और चले तो अड़ोसी-पड़ोसी बच्चे, नादान शोड़षियाँ भी धीरे-धीरे बर्दाश्‍त करना सीख जाएंगी।
सुना है कि लॉकडाउन में जालंधर से हिमालय दिखने लगा। पहले भी पृथ्वी से स्वर्ग-नर्क दिख जाया करते थे। देवता लोग अपने बीवी-बच्चों के साथ तीनों लोकों के बीच आते-जाते साथ-साफ दिखाई देते थे। बाद में इतना प्रदूषण हो गया कि सब दिखना बंद हो गया। इंसान को इंसान तक दिखना बंद हो गया। प्रदूषण हुआ तो हम मर-खप तो नहीं गए न? जीवित रहे। कड़ाके की ठंड पड़ते ही देश के तमाम शहरों में प्रदूषण के मारे आँखें बाहर निकल पड़ती है। साँस लेना दूभर हो जाता है। फिर भी हम जीते हैं। क्यों? क्योंकि हमने प्रदूषण के साथ रहना सीख लिया है। हमें सिखाने की ज़रूरत नहीं है, हम खुद ब खुद सब सीख जाते हैं।
बता रहे हैं कि लॉकडाउन में नदियों तालाबों का पानी एकदम शुद्ध हो गया। लॉकडाउन नहीं होता है तब? इन्हीं नदियों तालाबों का पानी गटर के पानी से बीस ही साबित हो उन्नीस नहीं। उद्योगों की मेहरबानी से नदियों में पानी नहीं एसिड को बहना पड़ता है। घरों में मुंसीपाल्टी के नलों से पानी की जगह कल-कल करती बीमारियाँ चली आती हैं। हमने बिना ना-नुकुर किये बीमारियों के साथ रहना सीख लिया। बी-कोलाई, हेपीटाइटस बी, कॉलेरा, हम सबके साथ रहते हैं। मलेरिया, चिकनगुनिया, स्वाइन फ्लू, आदि-आदि हर प्रकार के वायरस और बैक्टेरिया के साथ हमने बिल्कुल गंगा-जमुनी तहज़ीब की तरह रहना सीखा है। अस्पताल हो न हो, दवा हो न हो, डॉक्टर हो न हो, हम हर हाल में इन परजीवियों के साथ रहना सीख लेते हैं। कोरोना क्या चीज़ है? रह लेंगे उसके साथ भी। तुम्हारे कहने से नहीं, इस तरह किसी भी चीज़ के साथ सुखपूर्वक रह लेना हमारा जन्मजात गुण है।
भूख के साथ रहना कितना मुश्किल होता है न? लेकिन रह ही रहे हैं न गरीब लोग। पहले दो सौ साल अंग्रेजों के समय भूखे रहे, फिर आज़ादी के बाद तिहत्तर साल भूखे रहना सीखा, अब लॉकडाउन में चालीस-पचास दिन से भूखे रहते-रहते लाखों लोगों ने भूखा रहना सीख लिया है। किसी को पता ही नहीं चला। अपना सर्वस्व न्योछावर करके भूख के साथ रहना वे पीढ़ी दर पीढी से सीखते चले आए हैं। उन्हें कोरोना के साथ रहना सिखाने की कोई ज़रूरत नहीं है। वे माहिर हैं सीखने के।
महँगाई-बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने के वादों के साथ नेता लोग गद्दी पर काबिज़ हो जाते हैं पर वादाखिलाफी करना सीखने में उन्हें टाइम नहीं लगता। हम भी अच्छे खासे बेशरम हैं जो अपने जीवट से महँगाई-बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के साथ भी रहना सीख जाते हैं। शोषण, दमन, उत्पीड़न कौन सी ऐसी बला है जिसके साथ हमने रहना नहीं सीखा है। इसके लिए हम कोई तुम्हारे स्कूल-कॉलेजों के भरोसे नहीं बैठे रहे, न भाषणों-प्रवचनों के भरोसे बैठे, हमने खुद अपने अन्दर इतनी ज़बरदस्त प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है कि हम हर अच्छी बुरी चीज़ के साथ खुशी-खुशी रहना सीख जाते हैं, फिर कोरोना कौन से खेत की मूली है? देर-सवेर उसके साथ भी हम रहना सीख लेंगे। पहले बता दिया होता तो अब तक न केवल हम कोरोना के साथ रहना सीख चुके होते, बल्कि कोरोना को कुत्‍ते की तरह बाँधकर एक कोने में खड़ा भी कर दिया होता।

4 टिप्‍पणियां:

  1. सबके साथ रहना ही तो वसुधैव कुटुम्बकम का प्रतीक है । वो तो हम सदियों से करते चले आ रहे हैं ।

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    1. असली वसुधैव कुटुंंबकम का आनंद तो कोरोना ही लेगा। शुक्रिया।

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