गुरुवार, 6 अगस्त 2020

एक अधूरी साहित्य साधना


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
मैंने अक्सर देखा है कि जैसे ही साहित्य सृजन का मूढ़ मेरे अन्दर धनीभूत होता है, कोई न कोई आकर उसमें व्यवधान खड़ा कर देता है। उन्हें ज़रा भी इस बात का अन्दाज़ा नहीं होता कि उनके इस कुकृत्य से साहित्य का कितना भारी नुकसान होगा। साहित्य का गोदाम एक ऐसे महान साहित्यकार के कालजयी साहित्य से वंचित रह जाएगा जिसे साहित्य के क्षेत्र में शून्य योगदान का गौरव हासिल है।
अल्लसुबह जब मैं ताज़ा साहित्य लेखन के लिए नोट्स बनाने के लिए बैठा तो देखा फाइल पैड में सम्हाल कर रखे गए दो-तीन कोरे कागज़ों पर पड़ोसी का बच्चा, एबसर्ड शैली में चिड़िया-कौवे, कुत्ता-बिल्ली की आकृतियाँ उकेर गया था। उसे मेरे साहित्यकार बनने से पहले चित्रकार बनने की जल्दी थी। मजबूरन उपयोग किये गए कागज़ों के पीछे कोरे रह गए स्थान पर लिखकर साहित्य की लाज रखने के ख्याल से मैंने, बंद पडे़ चालीस-पचास बॉल पाइंट पेनों में से चल सकने वाले उस महान पैन की तलाश शुरू की जिससे इतिहास रचा जाने वाला था। पता चला कि पड़ोसी का बच्चा यह काम पहले ही कर चुका है। साहित्य साधना में दो बार आए इस नन्हें व्यवधान से गुस्सा तो बहुत आया मगर सोचा- चलो कोई बात नहीं, बच्चा है। उसे अभी उसकी की गई ऐतिहासिक गलती का बिल्कुल भी एहसास नहीं है, इसलिए उस पर नज़ला उतारने की बजाय मैंने पेन्सिल से साहित्य सृजन करने का निर्णय लेकर बरामदे में कुर्सी पर आसन जमा लिया।
अभी पहला शब्द दिमाग में आया ही था कि दरवाजे़ की घंटी बज उठी। घंटी की आवाज़ सुनते ही शब्द वापस वहीं चला गया जहाँ से आया था। उठकर दरवाज़ा खोला तो देखा सामने काम वाली बाई खड़ी थी। मैं झुंझला उठा, बोला- रात को सोती नहीं हो क्या जो इतनी सुबह-सुबह मुँह उठाकर चली आती हो? वह भी उत्तर फेंक कर मारने के लिए तैयार थी, चट से बोली-अपना कागज़ काला करो ना साब, कायको मेरे मुँह लग रहे हो?
मैं वापस अपनी जगह पर आकर बैठा ही था कि वह अन्दर से झाडू़ उठा लाई और बोली-चलो हटो यहाँ से। मैं अपने कागज़-पत्तर लेकर दूसरे कमरे में चला गया और बैठकर उस चले गए शब्द के वापस आने का इंतज़ार करने लगा। शब्द तो वापस नहीं आया लेकिन वह बाई बरामदा निबटाकर उस कमरे में भी चली आई जहाँ मैं बैठा था, और फिर बोली- चलो उठो। इस तरह यह साहित्य साधक इस कमरे से उस कमरे, उस कमरे से इस कमरे भटकता रहा और वह बाई मेरे पीछे-पीछे झाडू़-पोछा लिए घूमती मेरी साहित्य साधना में पलीता लगाती रही।
जैसे-तैसे वह गई और मैं फिर कागज़ पेन्सिल लिए बैठकर शब्दों का आव्हान करने लगा। पहला, दूसरा, तीसरा शब्द आया और चौथे शब्द पर फिर घंटी बज गई। मैंने पेन्सिल पटकी और दरवाज़ा खोला। सामने दूध वाला था। उसके हाथ से दूध के पैकेट लेकर मैंने फ्रिज़ में रखे और वापस बरामदे में आया तो देखा दूध वाला कम्बख़्त मेरे साहित्य साधना के सिंहासन पर जमा बैठा हुआ था। मैंने प्रश्‍नवाचक नज़रों से उसे घूरा तो वह अकड़ते हुए बोला- पैसे ! मेरा दिमाग फिर खराब हो गया। मुझे साहित्य साधना अधर में ही छोड़कर अब इस मनहूस के लिए पैसे ढूँढ़ने पड़ेंगे। घर में पैसे नहीं है यह छोटी सी बात दूध वाले को सीधे समझा देने की बजाय मैंने उसे गुस्‍से से डपट दिया- सुबह-सुबह पैसे माँगने क्यों चले आते हो? आजकल कोई घर में पैसे रखता है क्या? स्वेपिंग मशीन ले लो एक, एटीएम से पेमेंट कर दिया करेंगे। या फिर पेटीएम गूगल पे वगैरह पर अपना एकाउंट रखो, ऑनलाइन पेमेंट कर दिया करेंगे।
दूधवाला भी शायद घरवाली से लड़कर आया था, बोला-पैसे नहीं है तो ऐसा बोलो न, भाषण काहे दे रहे हो सुबह-सुबह? कल सुबह पैसा तैयार रखना, वर्ना कारड नहीं बनेगा। इस तरह एक दूधवाला भविष्य के एक कालजयी साहित्यकार की बेइज्ज़ती करके चला गया। मैं थोड़ी देर मुँह टापता सोचता रहा कि अच्‍छा हुआ मैं भाषणवीर नहीं बना, और फिर से अपने शब्द संधान में लग गया।
पेंन्सिल कागज़ को स्पर्श करने ही वाली थी कि बाहर सड़क पर कचरा बटोरने वाली गाड़ी अपने लाउडस्पीकर की कर्कश आवाज़ के साथ आ खड़ी हुई। इसकी यह संगीत सभा रोज़ सुबह बिलानागा होती है। 10-15 मिनट तक बारी-बारी से कोरोना और साफ-सफाई से संबंधित कोरस गान सुना-सुना कर वह मेरे साहित्य चिन्तन पर वज्रपात सा करती रही। मैं किंकर्त्वविमूढ सा वह वृंदगान सुनता रहा। मोहल्ले से कचरा बटोर कर फिर वह आसपास के मोहल्लों में घूमती रही और उसकी प्रात:कालीन संगीत सभा मेरे घर तक स्पष्टतः सुनाई देती रही। फिर तो एक घंटे तक बस कोरोना और कचरे के गीतों में ठसे सरकारी शब्द ही लौट-लौट कर दिमाग में आते रहे। मेरे अपने शब्द पता नहीं कहाँ फना हो चुके थे।
इससे पहले कि मैं फिर से साहित्य साधना में लीन हो पाता कि फिर से दरवाज़े की घंटी बजी। दरवाज़ा खोलकर देखा एक क्यूट सा बालक भगवा वस्त्र धारण किये हुए सामने मुस्कराता खड़ा है। उसने एक परचा मेरे हाथ में पकड़ा दिया और बोला-बच्चा, प्रभु राम के दरबार में अखंड रामायण का पाठ शुरू होने वाला है। अवश्‍य उपस्थित होवें। वह गया कि कुछ ही देर में सामने मंदिर के लाउड स्पीकर से बेसुरी-बेताली आवाज़ों में भक्ति रस की धारा बह निकली। मैंने अपने कागज़ और पेन्सिल को एक कोने में पटकते हुए साहित्य साधना चौबीस घंटों के लिए स्थगित कर दी। हिन्दी साहित्य मेरे अमूल्य योगदान से हमेश के लिए चौबीस घंटे पीछे रह गया।           
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4 टिप्‍पणियां:

  1. लगे रहिये। अंत मनोहारी हो पड़ा है। भगवा दर्शन का पुण्य मिला इससे ज्यादा क्या ले लेंगे?

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  2. भगवा दर्शन तो चारों और बिखरा पड़ा है, लेना न लेना आप के ऊपर है। धन्यवाद श्रीमान।

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