गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

सटोरियों का वर्डकप

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
         बस कुछ दिन और, सटोरियों का बहुप्रतीक्षित वर्डकप चालू होने वाला है। इधर जैसे-जैसे दुनिया की चौदह क्रिकेट टीमें अपने-आप को चाक-चौबंद कर वर्डकप के लिए तैयार कर रही हैं, वैसे-वैसे सटोरिए-बंधु भी अपनी ज़मीनी तैयारियों में भिड़ गए हैं। क्रिकेट खिलाड़ी जहाँ अपने तमाम हथियार यथा बैट-बल्ले, शिरस्त्राण नी-कैप, पैड, जूते-मोजे सम्हालने में लगें हैं, वहीं सटोरिये मोबाइल, टेलीफोन, लैपटॉप, कम्प्यूटर, टी.व्ही. और ‘ब्रीफकेस’ अप-टू-डेट करने लग पड़े हैं। कोई भी अपनी तैयारियों में कमी नहीं रखना चाहता आखिर वर्डकप चार साल के लम्बे अन्तराल के बाद जो आता है। 
    एक मायने में क्रिकेट और सट्टा दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इतने भयानक पूरक कि समझ में ही नहीं आता, क्रिकेट में सट्टा चल रहा है या सट्टे में क्रिकेट। खेल भावना दोनों में समान होती है।
सूने भवनों, सुनसान मैदानों, रहस्यमय गली-कूचों में ‘फड़’ खेलने वालों, या पुलिस की दबिश के दौरान घटिया होटलों के हर संभव निकास से कूद-कूद कर तीर की तरह भागते धुरंधर सटोरियों को खूब देखा है। वह किस्सा अब पुराना हुआ। किसी ज़माने के इस जोखिम भरे खेल का अब जबरदस्त रूप से सम्मानजनक रुपान्तरण हो गया है। अब बालकनियों से कूदकर पाँव तुड़वाने और पृष्ठ भाग पर पुलिस के डंडों की सुताई का  खतरा बिल्कुल नहीं रहा, बल्कि पुलिस के पूर्ण संरक्षण में किसी भी गुप्त स्थान पर बैठकर आधुनिक गजेट्स के सहारे सटोरिये दुनिया का अपना कोई भी टुर्नामेंट सम्पन्न कर ले सकते हैं। गली-कूँचों से लेकर सभी तरह के घरू क्रिकेट, एक विकिट, दो विकिट टूर्नामेंट, टेस्ट क्रिकेट, ओ.डी.आई, ट्वेंटी-ट्वेंटी, काउंटी मैचेस और सबसे कमाऊ आयोजन वर्डकप कुछ भी, सच्चे सटोरियों की खेल भावना से बिल्कुल अछूते नहीं रह सकते।
    वर्डकप क्रिकेट की तैयारियाँ ज़ोरों पर हैं। दुनिया भर के खिलाड़ी नेट प्रेक्टिस में पिले पड़े हैं। इधर शातिर सटोरियों ने भी अपने जाल बिछाकर प्रेक्टिस शुरू कर दी है। पुलिस वालों ने अपने जाल खोलना चालू किये हैं या नहीं यह बात पूरी तौर पर ‘गुप्त’ है परन्तु वर्डकप के प्रथम मैच की पहली ईनिंग के साथ ही सटोरियों के वर्डकप की पहली ईनिंग भी शुरु हो जाएगी। आइये दोनों महान खेलों का खेल भावना से स्वागत करें।

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

मुसीबतें अविष्कारों की

व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट
जनसंदेश टाइम्स लखनऊ में प्रकाशित
              कई लोगों को वैज्ञानिकों के किये कई अविष्कारों पर बड़ा गुस्सा आता होगा। जैसी इंचीटेप, तौलकाँटें, लीटर के माप, बिजली व बिजली के बल्ब, ताला-चाबी, किताब, चश्मा इत्यादि-इत्यादि। इन जैसे कई अविष्कारों ने लोगों को अपनी मनोकामनाएँ पूरी करने से बलात रोक रखा होता है।
          इंचीटेप न होता तो कपड़ची को कम कपड़ा नापने में सुविधा होती। टेप न हो तो ठेकेदार दस किलोमीटर सड़क को पाँच ही किलोमीटर बनाकर पूरे दस किलोमीटर के पैसे वसूल लेता और इन्जीनियर उसी सड़क को पन्द्रह किलोमीटर दिखाकर सरकारी खज़ाने को चूना लगा देता। किसी वैज्ञानिक ने तौलाकाँटा बनाया, वह यह कारस्तानी न करता तो किरानियों को कम सामान तौलने में कितनी सुविधा होती। लीटर के मापों का अविष्कार करके किसी दुष्ट वैज्ञानिक ने दूध वालों के लिए दिक्कत खड़ी की है।
          बिजली का अविष्कार कर वैज्ञानिकों ने पागलों के लिए कम मुसीबतें खड़ी नहीं की थीं कि किसी पागल वैज्ञानिक ने बिजली के बल्ब का अविष्कार कर मारा। इस बिजली के बल्ब से चोर-लुटेरों की नफरत किसी से छुपी हुई नहीं है, प्रेमियों को भी रात के अंधेरे में न मिलने देने के लिए यह बल्ब ही सबसे बड़ा जिम्मेदार है। यह बल्ब न होता तो चोर चैन से चोरी कर पाते और प्रेमी प्रेमलीला रचा पाते। इन दोनों का ही बस चलें तो ये दुनिया के सारे बल्ब तोड़ मारें। ताला-चाबी भी इसी तरह का अविष्कार है जो चोरों और प्रेमियों के भीतर गुस्सा पैदा करता है। इन दोनों में से कोई एक न होता तो चोर और प्रेमी दोनों का ही काफी काम बन जाता।
          किताबों और चश्मे के अविष्कार ने दुनिया को काफी रुला रखा है। किताब दुनिया में आई तो छात्रों को उसे पढ़ने का अप्रिय श्रम करना पड़ रहा है और चश्में के अविष्कार ने ऐसे-ऐसे पढ़ाकू पैदा कर दिये जो न केवल दुनिया भर की किताबें चट किये दे रहे हैं बल्कि वे जितने दिन जीवित रहेंगे उतने दिन किताबें रच-रचकर दुनिया पर भारी-भरकम साहित्य का बोझ बढ़ाते रहेंगे। चश्मा न होता तो आखिर आदमी कितना पढ़ता और कितना लिखता। आँख कमज़ोर होने के बाद चुपचाप एक कोने में बैठा रहता। कई लोगों को राहत मिलती।

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

अच्छी जगह बैठे हैं


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
जनसंदेश टाइम्स लखनऊ में प्रकाशित
            अक्सर कई लोग गर्व से अपनी गरदन ऊँट की तरह ऊँची किये हुए आत्मप्रशंसा करते हुए मिल जाते हैं-‘‘भगवान के आशीर्वाद से अच्छी जगह बैठे हैं।’’ भगवान के आशीर्वाद पर तो जितना ज़ोर ज़रूरी है, होता है, परन्तु ज़्यादा ज़ोर होता है-‘‘अच्छी जगह बैठे है’’ पर। सुनकर ऐसा लगता है जैसे किसी सिंहासन-विंहासन पर बैठे जनता के दुखदर्द दूर कर रहे हों या किसी धर्मात्मा की गद्दी पर विराजमान धर्मार्थ लंगर-वंगर चलाकर दीन-दुखियों की सेवा कर रहे हों, परन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं है। वे किसी सरकारी कुर्सी पर जमे मोटी तनख्वाह के अलावा तगड़ी रिश्वत भी बटोर रहे होते हैं। अकेली तनख्वाह से उन्हें ‘‘अच्छी जगह’’ बैठे होने का एहसास नहीं होता, वह होता है अच्छी ऊपरी आमदनी से। ऊपरी आमदनी अच्छी न हो या कुर्सी पर सूखी तनख्वाह के अलावा कुछ ऊपरी; नसीब न होता हो तो वह क़तई ‘‘अच्छी जगह’’ नहीं हो सकती, भले ही तनख्वाह खूब मिल रही हो।
          सरकारी दफ्तरों में तो चपरासी भी अगर मलाई मार रहे अफसर की घंटी पर बैठा हो तो वह भी मूँछों पर ताव देकर शेखी बघारता है-‘‘अच्छी जगह’’ बैठे हैं। दफ्तर का डफर से डफर आदमी भी जिसे सबसे निकृष्टतम काम में लगाया गया हो, अगर पच्चीस-पचास रुपये की ऊपरी आमदनी पर हाथ साफ कर लेता है तो वह भी ‘‘अच्छी जगह’’ बैठे होने के एहसास से भरा रहता है।
          अच्छी रेलमपेल वाले चौराहे पर विराजमान भिकारी जब अच्छी कमाई कर रहा होता है तो इस गर्व से फूला हुआ रहता है कि वह ‘‘अच्छी जगह’’ बैठा है। टोलटैक्स नाके पर उगाही करने वाला कर्मचारी उगाही में चोरी-चुंगी की सुविधाओं के कारण अपने आपको अच्छी जगह बैठा महसूस करता है। मरघट में लकड़ी की टाल पर तौल में डंडी मारकर चार पैसे तनख्वाह से अधिक पा जाने वाला इंसान भी अपने इस घटियापन पर ‘‘अच्छी जगह’’ बैठे होने का दंभ लिए घूमता है।
          क्या ज़माना आ गया है। किसी को ईमानदारी और मेहनत से काम करते हुए ‘‘अच्छी जगह’’ बैठे होने की अनुभूति कभी नहीं होती, ऐसी जगह बैठे हर आदमी को हर वक्त यह एहसास कचोटता रहता है जैसे उसे नर्क में बिठा दिया गया हो।

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

यू.पी. में जंगलराज - व्यंग्य

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
        ‘‘यू.पी. में जंगल राज, यू.पी.में जंगल राज’’, सारे टी.वी. चैनल चिल्ला रहे थे, सुनकर जंगल में ज़बरदस्त असंतोष फैल गया। जैसे-जैसे टी.वी. पर हिंसा, हत्या, बलात्कार, लूट, अपहरण की घटनाओं का जीवन्त चित्रण करते हुए समाचार दिखाए जा रहे थे, वैसे-वैसे जंगल के सारे जानवर एक पेड़ के नीचे एकत्र होकर रोष प्रकट कर रहे थे। काफी हल्ला-गुल्ला मच चुकने के बाद जंगल के राजा शेर ने वहाँ आकर एक ज़ोरदार दहाड़ मारी जिसका मतलब था-‘‘ऑर्डर ऑर्डर’’, तब जाकर  जंगल के आक्रोशित जानवर खामोश हुए। इस खामोशी को तोड़कर शेर ने सबको डपटते हुए पूछा-क्या है रे, क्यों तुम लोग असमय यहाँ इकट्ठा होकर हल्ला-गुल्ला मचा रहे हो ?’’
       शेर का सवाल सुनकर एक साहसी खरगोश ने आगे आकर कहना चालू किया-‘‘महाराज, आजकल टी.वी. रात-दिन एक ही बात ‘‘यू.पी. में जंगल राज’’, ‘‘यू.पी. में जंगल राज’’ दोहराता रहता है, जो कि जंगल राज का बहुत ही गलत इन्टरप्रिटेशन है। यू.पी. में जो कुछ भी चल रहा है वह हमारे जंगल में न तो पहले कभी हुआ और न आगे होगा।
       शेर बोला-‘‘कहाँ है यह यू.पी.! और वहाँ चल क्या रहा है जिसकी तुलना जंगल राज से की जा रही है ?
एक बंदर ने आगे आकर बोलना शुरू किया-‘‘महाराज, यू.पी. इन्डिया में है और वहाँ पर रोज़ाना हिंसा, गुंडागर्दी, लूटपाट, अपहरण और हत्या की घटनाएँ हो रहीं हैं।’’
       बंदर के चुप होते ही एक बंदरिया बोल पड़ी-‘‘और बलात्कार को क्यों भूल रहा है तू ? जनता के चुने हुए प्रतिनिधि बलात्कार कर रहे हैं, एक नारी के राज में नारी संकट में है।’’
       खरगोश फिर बोलने लगा-‘‘हमारे जंगल में महाराज, आप और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते हो, मगर यू.पी. में तो आम आदमी का जीना मुश्किल हो गया है। ये टी.वी. वाले अराजकता के इस राज को जंगल राज बता रहे हैं, यह हमारा और हमारे राज्य का सरासर अपमान है।’’
       एक हिरण बोला-‘‘महाराज, हमारे जंगल में तो दुष्ट से दुष्ट जानवर भी ऐसी गिरी हुई हरकत कभी नहीं करता, तब इन लोगों की हिम्मत कैसे हो रही है यू.पी. की तुलना जंगल से करने की! हमें कोई सख़्त कदम उठाना चाहिये।’’
       शेर ने सबकी बातें धैर्य से सुनने के बाद अपने राजनीतिक सलाहकार चिंपाजियों से पूछा-‘‘साथियों, बताओ, इन्डिया के साथ हमारी इस तरह की कोई राजनैतिक संधि है जिसके अन्तर्गत हम इन्डिया गोरमेंट के सामने अपनी आपत्ति दर्ज करा सकें, कि जंगल का यह अपमान नहीं किया जाना चाहिए !
       सलाहकारों ने अपना सिर खुजाना चालू कर दिया। सारे जानवर इंतज़ार करते रहे कि सर में से अब कुछ निकले कि तब कुछ निकले, मगर दोनों सलाहकार बस ज़ोर-ज़ोर से सर ही खुजाते रहे। यह देखकर शेर को गुस्सा आ गया, वे ज़ोर से दहाड़े-‘‘मूर्खों, हर समस्या पर सर क्यों खुजाने लगते हो? सलाहकार दहाड़ सुनकर कॉप उठे और हकलाते हुए बोले-महाराज इन्डिया के साथ हमारी कोई भी संधि हो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, क्योंकि यू.पी. में जिन मायावी बहनजी का राज है वे किसी खाँ की नहीं सुनतीं। हमारे लिए सबसे दुख की बात यह है कि बहनजी ने एक ‘हाथी’ पाल रखा है जो कि हमारा ही एक भाईबन्द है, मगर जंगल में सबके साथ हिल-मिलकर रहने वाला वह ‘हाथी’ सत्ता के नशे में चूर होकर आम जनता को अपने पैरों तले रोंद रहा है। अब अगर आप कोई आपत्ति दर्ज कराओगे तो इन्डिया गोरमेंट ‘हाथी’ को आगे कर देंगी और कहेगी हम क्या करें तुम्हारा ही भाईबन्द है।
       हाथी का नाम सुनकर जंगल के राजा की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई, उसने हकलाते हुए अपनी प्रजा से कहा-‘‘देखा, वह नालायक वहाँ जाकर ऊधम कर रहा है। अब जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो अपन क्या करेंगे! चलो जाओ, सब लोग अपनी-अपनी गुफा में जाकर आराम करो, और किसी को यह यू.पी. की खबरें देखने की ज़रूरत नहीं है, वर्डकप चालू होने वाला है, बैठकर चुपचाप चैनलों पर चल रही बकवास का आनन्द लो।
       सारे जानवर आज्ञाकारी प्रजा की तरह चुपचाप अपनी-अपनी माँद में जाकर टी.वी पर क्रिकेट सम्बंधी प्रसारण देखने लगे। 

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

गब्बरसिंग और सुस बैंक की रकम

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
        गब्बरसिंग की बूढ़ी हड्डियों में कड़-कड़ की आवाज़ आने लगी, बाज़ुए फड़कने लगीं और आँखों की चमक से ‘सांभा’ समेत दूसरे तमाम डाकू खुशी से झूम उठे - इतने दिनों से फालतू बैठे हैं, अब कुछ न कुछ ज़रूर होगा। एक डकैत तो उत्साह में काली माई की आदमकद मूर्ती की साफ-सफाई में लग गया कि शायद अब खून का टीका लगाकर सौंगध उठाने का समय आ गया है।
    गब्बरसिंग हाथ में सुबह का अखबार लहराता हुआ चिल्लाया-‘‘अरे ओ सांभा ! ये ‘सुस बैंक’ किधर है रे ? फौरन डाका डालने की तैयारी शुरु करो।’’
    सांभा जो अब भी चट्टान पर बैठा न जाने किस की निगरानी कर रहा था, बोला-‘‘पगला तो नहीं गए सरदार! सुस बैंक कोई पच्चीस-पचास कोस दूर नहीं है जो मरियल घोड़ों पर धावा बोलकर लूट लावे! सात समुन्दर पार है सात समुन्दर पार।’’
    ‘‘सात समुन्दर पार !! इतनी दूर! बहुत नाइन्साफी है रे! इतनी दूर जाकर पैसा जमा करने की क्या ज़रूरत थी इन हरामज़ादों को! यही कहीं बैंक में नहीं रख सकते थे ? गब्बरसिंग का खौफ अभी कम नहीं हुआ है, क्योंरे सांभा ?’’ गब्बरसिंग मूँछ पर ताव देता हुआ आत्मश्लाघा से गरदन ऊँची करता हुआ बोला। इस पर सांभा गब्बरसिंग से असहमति जताते हुए बोल पड़ा-‘‘कोई भटे के भाव नहीं पूछ रहा गब्बर-अब्बर को सरदार! अब तुम जैसे टुच्चे डाकुओं की कोई औकात रही नहीं इस देश में, तुमसे बड़े-बडे़ सफेदपोश डाकू पैदा हो गए है यहाँ। देख नहीं रहे लूट का कितना माल देश के बाहर पहुँचा दिया सुसरों ने!’’
    गब्बर अखबार की हेडिंग पर नज़र डालता हुआ सांभा से पूछने लगा-‘‘सात पर तेरह शून्य, कितना रुपया होता है रे सांभा ?’’
    ‘‘सरदार! इतना पढ़े-लिखे होते तो तुम्हारी गैंग में झक मार रहे होते क्या ? शान से कहीं अच्छी जगह बैठकर माल बटोर रहे होते, जैसे देश में इतने सारे लोग बटोर रहे हैं। नेता बनते, अभिनेता बनते, मंत्री-अफसर बनते, बड़ा उद्योगपति, व्यापारी बनते, ठेकेदार-दलाल बनते और देश का माल हजम करते। यहाँ चट्टान पर बैठकर चौकीदारी काहे करते रहते।’’ सांभा ने पहली बार गब्बर के सामने अपनी कुंठा अभिव्यक्त की। इस पर गब्बरसिंग आश्चर्य प्रकट करता हुआ बोला-‘‘अरे सांभा! देश में तो अपने से भी बड़े-बडे़ लूटेरे खुले घूम रहे हैं, सरकार अपने पर तो हज्जारों रुपया ईनाम घोषित कर देती है, उन पर काहे नहीं करती। उन्हें पकड़ती काहे नहीं जो देश का नाम पूरा मिट्टी में मिलाए दे रहे हैं!’’
    सांभा गब्बर को समझाता हुआ बोला-‘‘ लोकतंत्र है सरदार। लोकतंत्र में सरकार को ताकतवर लोगों से डर कर चलना पड़ता है। हर किसी पर हाथ डालने से पहले चार बार सोचना पड़ता है।’’
    गब्बर आपा खोकर जोर से चिल्लाया-जो डर गया समझो मर गया। गब्बर के गिरोह में अगर किसी ने यूँ अमानत में खयानत की होती तो उसकी बोटी-बोटी नोचकर चील-कौओं को खिलाता गब्बर।’’
    सांभा खीजता हुआ बोला-‘‘अब ये पुरानी डायलॉगबाजी बंद करो सरदार! लोकतांत्रिक सरकार और डाकुओं के गिरोह में बहुत फर्क होता है। लोकतांत्रिक सरकार, सार्वजनिक ‘लूटतंत्र’ के सिद्धांत पर चलती है और तुम जैसे डाकुओं का गिरोह शुद्ध ‘तानाशाही’ के सिद्धांत पर चलता है। डकैतों में सरदार नाम का डाकू पूरा माल खुद हड़प जाता है मगर लोकतंत्र में सब मिल-बाँटकर खाते हैं।’’
    गब्बरसिंग सांभा की बात से रुष्ठ हो गया और पूरे गैंग पर लगा चिल्लाने -‘‘सुअर के बच्चों, ज़्यादा चलाई तो हलक से बाहर खींच लूँगा तुम सबकी ज़बान। चुपचाप ‘सुस बैंक’ में डाका डालने की प्लानिंग फायनल करो। धिक्कार है, देश की ‘सात पर तेरह शून्य’ की रकम दूसरे देश की बैंक में पड़ी हुई है और कोई माई का लाल उसे वापस लाने की हिम्मत नहीं कर रहा, धिक्कार है धिक्कार। अब यह माँबदौलत गब्बरसिंग पूरी की पूरी रकम वापस लाकर रहेगा।’’
    पृष्ठभूमि में कूँऊऊऊऊऊ की लम्बी ध्वनि के बाद लम्बा सन्नाटा छा गया। गब्बरसिंग के आदमी खुश भी थे और किसी अनहोनी के अंदेशे से डर भी रहे थे।

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

भ्रष्टाचार को संवैधानिक बनवाइये, हुज़ूर

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
जनसंदेश टाइम्स लखनऊ में प्रकाशित
    चलो छोड़ो, जाने भी दो, फालतू की चिल्लपों मचा रखी है, घर की ही सी तो बात है, इस तरह कोई घर की ज़रा-ज़रा सी बातें सड़कों पर ले जाता है क्या! बच्चे हैं, नादान हैं, नासमझ हैं, लाड़ प्यार में बिगड़ गए हैं सुधर जाएँगे! यूँ भी उन्होंने किया क्या है ? ऐसा कौन सा पाप कर दिया! किसी की गरदन तो काट नहीं दी, ना किसी के साथ बलात्कार किया है, बस वही किया है जो सड़क से संसद तक हर कोई करता है, कोई कम, कोई ज़्यादा, करता मगर हर कोई है। ना करे तो खाना हज़म न हो, रात को नींद न आए, हर वक्त बेचैनी का आलम रहे। आखिर यह सदियों से खून की तरह हमारी रगों में दौड़ रहा है।
    जब कोई चीज़ सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक स्तर पर सर्वमान्य, सर्वस्वीकृत, सर्वग्राह्य हो ही गई है तो दकियानूसी रूढ़ीवादी बूढ़ों की तरह उसके विरोध में छाती पीटने से क्या फायदा। वह था, है और रहेगा। इसे मानो, मान-सम्मान दो, इज्ज़त करो उसकी। जब अपने जीवन से उसे उखाड़ फेंक नहीं सकते तो अपना ही लो। तुम्हारे बाप का क्या जाता है।
    मैं तो कहता हूँ क्यों न इसे संवैधानिक कर दिया जाए, फिर सब लोग मिल-जुल कर इसे किया करें। कब तक कोई चीज़ गैर कानूनी रूप से की जाती रहेगी, अच्छा लगता है क्या ? जब कुएँ में ही भाँग पड़ी हुई हो तो फिर फालतू का नाटक करने से क्या फायदा? करना क्या है, कानून की किताब में जहाँ कहीं भी ‘वर्जित’ लिखा है उसे खुरच कर मिटा देना है। इसके समर्थन में कानूनी संशोधनों की नए सिरे से रचना करना है। इसके प्रोत्साहन के लिए, इसके नव पल्लवन-पुष्पन के लिए, इसके समुचित विकास और उत्थान के लिए नई-नई योजनाएँ बनाना है, और इसके लिए प्रावधानित बजट को इसी के माध्यम से खा जाना है। इसके प्रति अपनी प्रतिबद्धताएँ सार्वजनिक करना हैं, इस तरह लुके-लुके छुपे-छुपे इसका पारायण और कर्मकांड आखिर कब तक किया जाएगा ? खुलकर इसका वंदन-अभिनन्दन करने का समय आ गया है, लोग जिसे ‘भ्रष्टाचार’ के नाम से जानते हैं, जी हाँ जनाब मैं ‘भ्रष्टाचार’ की बात कर रहा हूँ।

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

तिहाड़ में कैम्पस

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
          देश की कुछ चुनिंदा कम्पनियाँ कैम्पस सिलेक्शन के लिए तिहाड़ जेल जाएँगी, शरीर में झुरझुरी पैदा कर देने वाली खबर है। उन बहादुर कम्पनियों को दिल से दाद देने का मन कर रहा है जो खूँखार अपराधियों के गढ़ में घुसकर कैम्पस-कैम्पस खेलने का दुस्साहस करने वाली हैं। सिलेक्शन में अन्तिम निर्णय कम्पनी वाले करेंगे, या दुर्दान्त अपराधीगण अधिकारियों की गरदन पर छुरी रखकर अपने अपाइंटमेंट लेटरों पर दस्तखत करवाएँगे यह बात भविष्य के गर्भ में है।
          खैर, खबर पूरी पढ़ने से पहले मुझे तो लगा था कि अपराधियों ने भी कहीं प्रायवेट लिमिटेड कम्पनियाँ बनाकर अपराध करना तो शुरू नहीं कर दिये। कम्पनियों को अपने स्वार्थ-संधान के लिए अपराध करते हुए या अपराधियों से सांठगाँठ कर काम्पीटीटरों को चमकवाते हुए तो सुना था, कुछ कम्पनियों द्वारा रिकवरी एजेंटों के रूप में गुंडे पालने की खबरें भी बहुत सुनी हैं, मगर सोचिए अपराधी भी अगर कम्पनी लॉ के अन्तर्गत प्रायवेट लिमिटेड कम्पनी बनाकर बाकायदा सरकार को टेक्स देते हुए अपना धन्धा चलाएँ तो देश कहाँ से कहाँ पहुँच जाए। अपराधकर्मों की तादात देखते हुए कहाँ जा सकता है कि खजाने में टेक्स जमा होने के सारे रिकार्ड ध्वस्त हों जाएँगे। चोर-डाकुओं, पेशेवर अपराधियों, कातिलों-बलात्कारियों की प्रायवेट लिमिटेड कम्पनियाँ तिहाड़ जेल जाकर पेशेवर अपराधियों का कैम्पस सिलेक्शन करें इससे इससे बढ़िया और क्या बात हो सकती है! बाहर बेचारे पढ़े-लिखे बेरोज़गार भले ही यहाँ-वहाँ फटके खाते फिरें, अन्दर बन्द अपराधियों का तो भला होगा।
          क्या सीन होगा, जेल के नोटिस बोर्ड पर नोटिस चस्पा है- कल प्रातः ग्यारह बजे जेल की सेल नम्बर पाँच के अन्दर एक डकैत कम्पनी के लिए बैंक लुटेरों का कैम्पस सिलेक्शन किया जाएगा। योग्य एवं अनुभवी उम्मीद्वार अपने विस्तृत बायोडाटा के साथ निश्चित स्थान पर उपस्थित हों। प्रायोगिक परीक्षा के लिए सभी आवश्यक उपकरण कम्पनी द्वारा उपलब्ध कराएँ जाएँगे। वेतन के साथ-साथ लूट की रकम में कमीशन की सुविधा। या, एक मर्डर कम्पनी को चतुर-चालाक शार्प शूटरों की आवश्यकता है, योग्य उम्मीद्वारों का कैम्पस सिलेक्शन एवं प्रेक्टिकल टेस्ट सेल नम्बर दस के प्रांगण में सम्पन्न होगा। सभी इच्छुक शार्प शूटर अपना-अपना कट्टा लेकर निश्चित समय पर उपस्थित हों।
          एक और बानगी-एक निजी बलात्कार कम्पनी को अपने फेंचाइजियों के लिए अनुभवी और तेज़तर्राट बलात्कारियों की आवश्यकता है। तीन या तीन से अधिक बलात्कारों का अनुभव रखने वाले योग्य उम्मीद्वारों को प्राथमिकता दी जाएगी। वेतन एवं अन्य सुविधाएँ योग्यता अनुसार। अपने ट्रेक रिकार्ड के साथ पुलिस डिपार्टमेंट का अनुभव प्रमाणपत्र लेकर कैम्पस सिलेक्शन में उपस्थित हों।
          इसी तरह जेबकटी, चोरी-चकारी, उठाईगिरी, नकबजनी, चेन-मोबाइल झपटमारी जैसे टुच्चे अपराधों, कमीशन और रिश्वतखोरी, घोटालेबाजी, गबन इत्यादि जैसे राजसी अपराधों और मिलावट, नकली सामान बेचने, जमाखोरी, मुनाफाखोरी, कालाबाज़ारी आदि-आदि पारम्परिक अपराधों के लिए भी इच्छुक पेशेवर भाई लोग कम्पनी रजिस्टर करा कर कैम्पस सिलेक्शन चालू कर सकते हैं।
          पहले मैं सोचता था, बेरोजगारों को यदि नौकरी मिल जाए तो वे बेचारे अपराधी क्यों बनें, लेकिन अब सोचता हूँ कि अच्छा है अपराधी बन कर कम से कम नौकरी की गारंटी तो है।

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

दुग्ध क्रांति के देश में दूध की शार्टेज

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//      
          देश भर की गाय-भैंसें, बकरियाँ, उँटनियाँ धबाधब दूध देती हैं, डेरियों में टेंकरों पे टेंकर दुग्ध उत्पादन होता है, ऊपर से देश के नकली दुग्ध उत्पादकगण अलग देश की दुग्ध-माँग के विरुद्ध भरपूर आपूर्ति सुलभ कराते हैं, फिर भी देश के लाखों दुधमुँहे गरीब बच्चों को दूध पीने को नहीं मिल पाता, यह एक बड़ी विडंबना है। दूध का इतना सारा उत्पादन आखिर जाता कहाँ है यह खोज का विषय है।
          मैंने खोज की तो पाया कि इसका कारण हमारी सांस्कृतिक-जड़ों में मौजूद है। पाप करके गंगा नहाना हमारी पुरानी परम्परा रही है, मगर आजकल प्रदूषण के चलते गंगा पाप धोने के लिहाज से सुरक्षित नहीं है और न ही वह देश भर में सर्वसुलभ है। इसलिए दूध से धुलकर अपनी छवि उज्जवल-धवल बनाए रखना पापियों का प्रिय शगल और आवश्यकता है। निर-निराले पाप कर्मों व असामाजिक कुकृत्यों की इस कर्मभूमि पर चारों ओर दूध के धुलों की भीड़ को देखकर सहज ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि इतना सारा दूध आखिर चला कहाँ जाता है।
          भाँति-भाँति की चोरी-डाकेजनी, ठगी-जालसाजी, धोखेबाजी-अन्याय, हद से हद दर्जे का पापकर्म करने के बाद भी आदमी दूध से धुल-पुछकर शान से गरदन उठाए घूमता है। इसके लिए काफी दूध की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए दूध की शार्टेज हमेशा चलती रहती है। दरअसल देखा जाए तो देश में शार्टदूध और पापकर्मों का वाल्यूम दोनों समानुपातिक है। इससे ही यह सिद्ध होता है कि दूध की सम्पूर्ण खपत पापियों के बीच में ही है।
          देश में जितना पाप, भ्रष्टाचार, दुराचार-तिराचार बढ़ रहा है उतना ही फालतू का पैसा भी बढ़ता जा रहा है। यह फालतू का पैसा पलटकर दूध की शार्टेज बढ़ा रहा है। जिसके पास जितना फालतू पैसा है वह उतना दूध खरीदकर तबियत से धुल लेता है और बेदाग-धब्बे होकर सार्वजनिक स्थलों पर धूमता-फिरता है। किसी को पता ही नहीं चल पाता कि जगमग करती दूध की सफेदी के पीछे कितने दाग-धब्बे हैं। जिसके पास पैसे का टोटा है वह अपने पापों के अनुपात में दूध नहीं खरीद पाता सो मामूली से मामूली पाप में कानून के हथ्थे चढ़कर पापी साबित हो जाता है और जेल की हवा खा आता है।
          पैसा-पाप-दूध की शार्टेजयह तीनों परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। आदमी जितना पाप करेगा उतना पैसा बनाएगा, जितना पैसा बनाएगा उतना पाप करने के लिए प्रवृत हो और उसे अपने पाप धोने के लिए उतने ही दूध की ज़रूरत पड़ेगी जो कि गरीब बच्चों तक नहीं पहुँच पाएगा। दूध से धुलकर जितना पाक-साफ दिखेगा उतना सहजता से पाप कर्म में लिप्त हो सकेगा और जितना पैसा बना सकेगा उतना दूध खरीद कर अपने आप को धो सकेगा। इस तरह यह स्पष्ट है कि दुग्ध क्रांति का देश होने के बाद भी हमारे देश में बच्चों को दूध से वंचित क्यों रहना पड़ता है। सारा दूध अगर पापियों-दुष्टों कुकर्मियों के द्वारा अपनी छवि झकाझकरखने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा तो बच्चे बेचारे दूध से वंचित नहीं रहेंगे तो क्या करेंगे।