व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट
‘दीपावली’ और ‘धन’ का रिश्ता बड़ा सगा-सगा और नज़दीक
का सा है। क्यों, पता नहीं। सामंती दौर की उत्साहवर्धक परम्परा थी कि राज्यों
की सेनाएँ अक्सर एक-दूसरे से मारा-कुटी कर लेने के बाद जीती हुई सेना शञुओं का तमाम
माल-असबाब लूट कर अपने राज्य में ले आती थीं। वापस आकर वे उस लूट के माल को जनता
में बाँटती थीं या सब कुछ राजा ही हड़प लेता था पता नहीं, परंतु लगता है लंका पर
फतह हासिल करने के बाद रामचन्द्र जी और उनकी सेना ने लंका से उखाड़-उखाड़ कर लाए सोने
की ईंट-पलस्तर दो-दो, पाँच-पाँच तोले की पेकिंग में बंधवाकर अपने नागरिकों के
बीच बाँटी होंगी। शायद परम्परा की उसी निरन्तरता में भारतीय जन-गण आज भी दीपावली
पर पलक-पॉवडे़ बिछाए बाँट जोहता बैठा रहता है कि कोई आए और हराम के धन की वर्षा कर
जाए, ताकि वह धन बटोर कर नए कपड़े सिलवाए, मिठाइयाँ खरीदे, पटाखे चलाए, जुआ सट्टा
खेले।
‘धन-लक्ष्मी’ की उत्कंठा-आकांक्षा
में बरसों-बरस से दिवाली बदस्तूर मनाई जाती है। खान्दान में कभी देहरी लांघकर आई
हो या न आई हो, मगर दिवाली के दिन ‘लक्ष्मी’ अवश्य आती है यह गलतफहमी लोगों को शायद ‘ञेता’ से ही चली आ रही है, जबकि सभी
जानते हैं कि दिवाली आती है तो साथ में लगा-लगा ‘दिवाला’ भी चला आता है। अर्थात हाथ में आता-वाता तो कुछ नहीं है, जमा
कर रखी गाँठ की थोड़ी-मोड़ी लक्ष्मी भी स्वाहा हो जाती है। हो सकता है उन दिनों
दिवाली में रामसेना ने बाँटा होगा धन, मगर आजकल दिवाली जैसे त्योहारों पर ‘कार्पोरेटी धन-सेनाएँ’ साम-दाम-दंड-भेद से लोगों की
जेब से धन निकालने की कवायद करती देखी जा सकती हैं। ‘बाज़ार’ ने पब्लिक को फजिू़ल के सामान
की खरीददारी से घर भरने का चस्का लगाकर लक्ष्मी का प्रवाह अपनी तिज़ोरियों की ओर मोड़ रखा
है। लक्ष्मी जी भी व़न-वे ट्राँफिक सी बस धन्ना सेठों की तिज़ोरियों की तरफ ही
दौड़ती नज़र आतीं हैं। आम जनता कितनी ही बेसब्री से उसका इंतज़ार करे मगर वह भुक्कड़ों
के घर की दिशा में कभी भटकती नज़र नहीं आती।
लक्ष्मीजी बेरोकटोक घर में आ
सकें इसके लिए लोग तरह-तरह की उठापटक करते हैं, मगर वे देवी जी अर्थशास्ञ की
नियमों के विपरीत किसी गरीब-गुरबे के घर में जाने को कभी तैयार ही नहीं होतीं,
चाहे कितना भी बड़ा भक्त हो। अर्थशास्ञ का नियम है कि बड़ी पूँजी छोटी पूँजी को
खा जाती है, इसलिए लक्ष्मीजी अपने साथ ‘धन’ का जो तूफानी अंधड लेकर धन्ना सेठों की तिजोरी की तरफ लपकती
हैं, तो उसमें बेचारे छोटे-मोटे लक्ष्मी भक्तों की लुटिया ही डूब जाती है, किसी
को कुछ मिलता-विलता नहीं है।
पुराने ज़माने में जब लॉटरी का
धंधा सरकारों की देखरेख में चला करता था, कई लक्ष्मी भक्त लाटरी के टिकट खरीद कर
पूजा में रखा करते थे और लक्ष्मी जी से प्रार्थना किया करते थे कि उनकी खरीदी
एखाद लॉटरी पर कुछ नहीं तो आखरी एक अंक का ही ईनाम लग जाए। उनकी यह आत्मिक मंशा
होती थी कि उनके खरीदे लॉटरी टिकट के नम्बर पर ही उस व्हील को फ्रीज़ करवाने में
लक्ष्मीजी पिछले दरवाज़े से उनकी मदद करे, जिस व्हील को घुमाकर लाटरी का भाग्यशाली
नम्बर निकाला जाता है। उन बेवकूफों को किसी ने कभी यह ज्ञान दिया ही नहीं होता कि
व्हील को मन चाही जगह पर रोककर मनचाहे नम्बर पर ईनाम बाँटने के शुद्ध मानवीय कौशल
के सामने लक्ष्मीजी की एक नहीं चला करती। वे वहाँ उतनी ही मूक दर्शक होती हैं
जितना कोई सीधा-साधा भारतीय नागरिक होता है।
आज भी कुछ लोग घरवाली से पंगा
लेने की कीमत पर भी, दिवाली के बजट से कुछ धन निकालकर जुए-सट्टे-मटके की भेंट चढ़ा
आते हैं ताकि लक्ष्मी जी की कृपा उन पर हो जाए, मगर वहाँ भी जुआ-सट्टा खिलाने वाले
‘दादा’ लोगों की लक्ष्मीजी से ज़्यादा
धाक होती है यह उन बेचारों को पता ही नहीं होता। दिवाली के दिन ‘तीन पत्ती’ खेलने का शौक भी कुछ लोग इसी
भरोसे पाले रखते हैं, कि लक्ष्मी जी उनकी लगातार होती हार से तरस खाकर एखाद राउंड
उन्हें भी जीतने का मौका देंगी, मगर शातिर सटोरिए ऐसा होने दें तब न, लक्ष्मी जी
उनके सामने भी पानी भरती नज़र आती हैं।
इधर लक्ष्मीजी का रुझान बाज़ार
में लूटमार मचाने वाली ताकतों की ओर ज़्यादा दिखाई देता है। मिलावटखोर,
कालाबाज़ारिये, नकली माल बनाने-बेचने वाले दिवाली पर जितना खुश दिखते हैं उतना कोई
और नहीं, क्योंकि लक्ष्मीजी की कृपा उन्हीं पर ज़्यादा होती है। लक्ष्मी जी
की इस अदृष्य कृपा का दारोमदार भी उन लक्ष्मी भक्तों के हाथ होता है जिनके घर
में दबाकर हराम का माल आता हो, यानी रिश्वत, कमीशन, या हफ्ताखोरी। जिनके पास हराम
का माल आता है दिवाली पर उनकी बाँछे देखिए कैसी खिलकर फड़फड़ाती, उपत-उपत कर अपने-आप
सामने आती रहती हैं, जबकि मेहनत-मशक्कत करके कमाने वालों की बाँछे लैंस लेकर
ढूढ़ने से भी दिखाई नहीं देती।
दीपावली की पारम्परिक खुशियों को पलीता लग गया है। कौन पागल
है जो आजकल मर्यादा पुरुषोत्तम राम के अयोध्या आगमन की खुशियों में मिठाइयाँ
खाता-खिलाता हो। जिसे देखों वह लक्ष्मी के आगमन के इंतज़ार में मुँह बनाए बैठा रहता
है। चाहे सही रास्ते से आए या गलत रास्ते से, बस लक्ष्मी आना चाहिए। आ गई तो
समझो सबकी बाँछे खिल गईं, वर्ना भाड़ में गई दिवाली और भाड़ में गए दिवाली मनाने
वाले।
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मज़ेदार व्यंग्य
जवाब देंहटाएंदीप पर्व आपको सपरिवार शुभ हो !
सादर
पाव पाव दीपावली, शुभकामना अनेक |
जवाब देंहटाएंवली-वलीमुख अवध में, सबके प्रभु तो एक |
सब के प्रभु तो एक, उन्हीं का चलता सिक्का |
कई पावली किन्तु, स्वयं को कहते इक्का |
जाओ उनसे चेत, बनो मत मूर्ख गावदी |
रविकर दिया सँदेश, मिठाई पाव पाव दी ||
वली-वलीमुख = राम जी / हनुमान जी
पावली=चवन्नी
गावदी = मूर्ख / अबोध
कारण कोई भी हो, सबको प्रसन्न रहने के लिये अपना ही बहाना मिल जाता है।
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