//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
ट्रेन अपने निर्धारित समय से
प्लेटफार्म पर आ जाए यह अपने आप में बहुत ही विस्मयकारी बात होती है। समय पर आ गई
ट्रेन को प्लेटफार्म पर खड़ा यात्री भौंचक्का
सा ताकता रहता है, सोचता है
चढ़ू कि न चढ़ू! चढ़ जाऊँ तो ऐसा न हो कि किसी और ट्रेन में चढ़ कर किसी और स्टेशन
पर उतार दिया जाऊँ। वह असमंजस
में होता हैं कि समय से आ गई यह ट्रेन कहीं वो ट्रेन तो नहीं जिससे हमें जाना ही
नहीं है। क्योंकि जिस ट्रेन से हमें जाना होता है वह तो कभी समय पर आने की आदी ही
नहीं होती ।
ट्रेन का इंतज़ार करते आदमी
को देखिए,
दुनिया
भर की उदासी थोबड़े पर लिए वह इत्मिनान से ट्रेन का इंतज़ार करता रहता है। उसका
इत्मिनान इतना गहरा होता है कि उस दिन ट्रेन न भी आए तब भी वह इत्मिनान से प्लेटफार्म
पर डला ट्रेन का इंतज़ार करता उदास बैठा रह सकता है। क्योंकि बिना घंटों ट्रेन का
इंतज़ार किए ट्रेन में चढ़ने को मिल जाए ऐसी भारतीय ट्रेन लानत के समान है ।
समय पर आ गई ट्रेन में
पूछताछ कर आदमी चढ़ भी जाए लेकिन अपनी सीट पर बैठने में उसे बड़ा डर लगता रहता है
कि कहीं वह ग़लत ट्रेन में न चढ़ गया हो और उस ट्रेन का उस सीट का सही यात्री अगर
उसकी खोपड़ी पर आकर खड़ा हो जाये तो वह क्या करेगा। समय पर आ गई ट्रेन अगर
निर्धारित समय से 2 घंटा लेट चल रही दूसरी कोई ट्रेन
निकली तब तो वह बेटिकट हो जाएगा । ऐसे में अगर टीसी भी भाँप गया कि मुर्गा आ फँसा
है तो वो अलग जुर्माना और बेइज्जती दोनों साथ-साथ करेगा।
ऐसे बेटिकट यात्री की
दास्तान भी बड़ी दर्दनाक होती है । वह टिकट होते हुए बिना टिकट होता है और भी
रेलवे एक्ट,
1989
के सेक्शन 138
के मुताबिक बिना टिकट यात्रा करना दंडनीय अपराध है । उसे जुर्माने के साथ-साथ जेल
की हवा भी खाना पड़ सकती है। तो क्यों इत्ती रिस्क लेना। ट्रेनें चले जितना लेट
उन्हें चलना है कम से कम आदमी सही ट्रेन में बैठ कर जुर्माने और जेल से तो बच
जाएगा।
ट्रेन अगर समय पर प्लेटफार्म
पर आ लगे और आदमी समय पर घर पहुँच जाए तो बीवी आदमी को पहचानने से साफ इनकार कर
सकती है। बेकार में थाना पुलिस भी हो सकती है। उससे बेहतर है कि ट्रेनें बदस्तूर
लेट चलती रहें कोई परेशानी नहीं। आदमी महोदय प्लेटफार्म की निपट ठंडी बेंच पर
पटरियों पर से आने वाली दुर्दांत बदबू को सूँघते हुए घंटों डले रह सकते हैं। ट्रेन
का इंतज़ार करते आदमी के पास समय का कोई अभाव नहीं होता।
ट्रेन का इंतज़ार कर रहा
आदमी बार-बार चाय पीता है। गुटका तमाकू खैनी भी खाता रहता है। भूख लगती है तो
समोसा ब्रेड पकोड़ा और नहीं लगती है तब भी चिप्स कुरकुरे या हल्दीराम का कुछ न कुछ
चुगता रहता है। इससे अर्थव्यवस्था ऊपर उठती है। मेरी तो राय है कि हर स्टेशन के
हरेक प्लेटफार्म पर एक-एक गाँजा-भांग और कंपोजिट दारु की दुकान भी खोल देना चाहिए
और ट्रेन का इंतज़ार करते आदमी को चखना-सोड़ा पानी इत्यादि की पर्याप्त सुविधाएँ
उपलब्ध कराना चाहिए। ट्रेनों को अनिश्चितकालीन विलंब से चलने के सख़्त निर्देश
दे दिए जाना चाहिए ताकि लोग नशा-पत्ता कर प्लेटफार्म पर टुन्न पड़े रहें । सरकारी
खज़ाना भी भरता रहे और इतमिनान से ट्रेन का इंतज़ार भी होता रहे।
मेरे मत में तो लेट चल रही
ट्रेन का इंतज़ार करते आदमी को मुफ्त ख़ान-पान और दूसरे इंसेंटिव देना चाहिए। ताकि
ज़्यादा से ज़्यादा तादात में आदमी रेलवे स्टेशन पर आकर रात-दिन ट्रेन का इंतज़ार
करें। इस काम के लिए थोड़ा बहुत पारिश्रमिक भी दिया जा सकता है। इससे बेरोज़गारी
की विकट समस्या का भी निदान होगा। झुंड के झुंड बेरोज़गार युवा स्टेशन पर आकर
ट्रेन का इंतज़ार किया करेंगे और चार पैसे कमा कर अपना घर चलायेंगे।
चुनावी राजनीति की दृष्टि
से भी ट्रेन के इंतज़ार में प्लेटफार्म पर पड़े आदमी का काफी महत्व हो सकता है।
नेता लोग उसे ट्रेनों का हमेशा लेट होना सुनिश्चित करने और इंतज़ार की महत्वपूर्ण
घड़ियों में दी जाने वाली मुफ्त सुविधाओं से
संबंधित झूठे वादों के पुलिंदे पकड़ाकर उसका वोट झड़ा सकते हैं। कोई वादा न भी
किया जाए तब भी वह हमेशा की तरह उम्मीदा नाउम्मीदा वहीं पड़ा रहेगा । यही भारतीय
रेल यात्री की नियति है।
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