//व्यंग्य- प्रमोद ताम्बट//
सपनों
में आप खुद को झोला उठाए बाज़ार में घूमते दिखायी दें,
बड़े-बड़े
शो रूम मॉल्स की चकाचौध आँखों के सामने पिक्चर सी घूमती रहें,
फ़ूड
जोन, खस्ता चाट-पकौड़ी
की खुशबुओं से नथूने फड़कते रहें, कदम
बार-बार बिस्तर पर ही आपो-आप बाज़ार की ओर चल पड़ने को आतुर हों और साथ-साथ हाथ
में प्रचंड खुजली सी भी मचती रहे तो समझ लीजिए आपको खरीददारी की बीमारी ने जकड़ लिया
है। इस स्थिति में आप जब तक बाज़ार जाकर चार-छः घंटों का क़त्ल कर के आठ दस झोले-झाँगड़े
हाथों में लटकाएँ ओला-उबर से थके-हारे घर नहीं लौटोगे तब तक इन रोज़ परेशान करने
वाले सपनों की वजह से आपको रात-रात भर नींद नहीं आएगी । यदि आप घोड़े बेचकर चैन से
सोना चाहते हैं तो आपको समय-समय पर बाज़ार की तरफ दौड़ लगाना ही पड़ेगी चाहे आपकी
जेब में पैसे हों या न हों।
यकीन
मानिए इस चरम पूँजीवादी मारामारी के दौर में खरीददारी की यह संक्रामक बीमारी आम
आदमी के लिए अपने-आप में ख़ुद एक बहुत बड़ी प्राणदायी दवा बन गई है। दुनिया में
कुछ भी उठापटक चलती रहे, बाज़ार
उन्वान पर हों या ध्वस्त होते रहें, अर्थव्यवस्था
रेंग रही हो या उड़ रही हो, आपकी
माली हालत खस्ता हो तब भी खरीददारी की यह बीमारी स्थाई भाव से अपनी जगह बनी रहती
है और बाकायदा स्वास्थ्यवर्धक टॉनिक का सा काम भी करती रहती है। इस दवा के
सामने कोई ताकतवर से ताकतवर लाइफ़ सेविंग ड्रग भी टिक नहीं सकती। कभी तबियत नासाज़
रहे रात भर नींद न आए या उचटी-उचटी सी आती-जाती रहे,
सुबह
उठते से ही आँखों के आगे अंधियारा सा छाया रहता हो। रह रह कर घुमेरी आती हो।
चाय-नाश्ते की भी इच्छा ना हो। नहाने धोने सजने संवरने,
तैयार
होकर मटकने का भी मन न हो, प्राण
निकले पड़ रहें हों तो आप फौरन अपना क्रेडिट कार्ड या डेबिट कार्ड उठाकर बाज़ार की
तरफ़ निकल जाइये,
बस फिर देखिए कैसे आपके प्राण वापस लौट आते हैं। कहीं जम के मुँह की खानी पड़ी हो,
कहीं
पिट-पिटा कर आएँ हों, परीक्षा
में फेल हो गए हों, प्रेमी-प्रेमिका
से ब्रेकअप हो गया हो, इंडिया
क्रिकेट मैच हार गई हो, मूढ
बेहद खराब हो, बस
उठकर चल दीजिए बाज़ार की ओर। बाज़ार में
अगर आपने डॉक्टर की फ़ीस, पैथालॉजिकल
टेस्टों और दवाओं की कुल कीमत से एक चौथाई कम रकम भी यदि खर्च कर ली तो समझ लीजिए
आपकी बीमारी चंद लम्हों में छूमंतर हो
जाएगी। यकीन न हो तो आज़मा कर देख लीजिए।
बात
दरअसल यह है कि वैश्विक व्यापार व्यवसाय लॉबी ने खरीददारी की इस बीमारी को एक
महत्वपूर्ण अल्टरनेटिव थेरेपी के रूप में ईजाद किया है और उसे गीता-रामायण से भी
ज़्यादा प्रचारित प्रसारित किया है क्योंकि उनका मानना है कि उपलब्ध दवाओं से
हमेशा की तरह बस मर्ज़ ही बढ़ते रहें और मरीज़ दम तोड़ते रहें तो उनके व्यापार-धंधों
का क्या होगा। एक दिन दुनिया का सम्पूर्ण बाज़ार ख़रीददार विहीन हो जाएगा।
दुकानों शोरूमों पर ताले लग जाएँगे। कॉर्पोरेट दफ्तर और बिज़नेस हब सूने हो
जाएँगे। तिजोरियाँ भूखे पेट पड़ी रहने का मजबूर हो जाएँगी। सरकारों के पास भी करने
के लिए कोई काम नहीं रहेगा। इसलिए उन्होंने बहुत शोध-अनुसंधानों के पश्चात यह
थेरेपी ईजाद की है और अब इसका उपयोग घर-घर में किया जाकर स्वास्थ्य लाभ लिया जाने
लगा है।
मगर
इधर चिकित्सा विज्ञान की दवा-गोली इंजेक्शन ब्राँच ने इस बात पर गंभीर आपत्ति ली
है और हड़ताल इत्यादि करने की धमकी देकर विरोध दर्ज करा रखा है क्योंकि उनके
मुताबिक अगर ख़रीददारी से ही मरीज़ ठीक होते रहे तो उनके दवा-गोली निर्माण के धंधे
पर संकट आ सकता है। अस्पतालों, दवा-दारू
की फैक्ट्रियों दुकानों, पैथोलॉजी
सेंटरों, आधुनिक
टेस्ट प्रणालियों के भट्टे बैठ सकते हैं।
आम
पब्लिक को भी यदि अपनी बीमारियों को ठीक करने के लिए दवा-दारू और खरीददारी में से
कोई एक सुविधा चुनने के लिए कहा जाए तो वह भी शर्तिया खरीददारी को ही
चुनेगी,
क्योंकि पैसे तो आख़िर दोनों प्रकार की बीमारियों में खर्च होते हैं चाहे वह
खरीददारी की बीमारी हो अथवा शारीरिक बीमारी। जिस बीमारी से बांछे खिल-खिल उठती
हों वह बीमारी है असल बीमारी। खरीददारी की बीमारी दुनिया की एक मात्र ऐसी बीमारी
है जो खुद तो खतरनाक बीमारी है मगर हज़ार मर्ज़ों दवा भी
है।
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