बुधवार, 29 जून 2011

चले हैं बच्ची को सरकारी स्कूल में पढ़ाने

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
खबर है कि किन्ही एक ‘कलेक्टर साब’ ने अपनी बिटिया को ‘सरकारी स्कूल में दाखिल करवा दिया है। बिटिया के ननिहाल तरफ जो मातम मना होगा उसकी तो बस कल्पना ही की जा सकती है, ‘कलेक्टर साब’ के ससुरसाब सोच रहे होंगे, काहे को तो इस पागल से अपनी लड़की व्याह दी! नातिन को व्ही.आई.पी. स्कूल की सीट की जगह सरकारी स्कूल की टाटपट्टी पर बैठना पड़ रहा है। इससे तो किसी सरकारी बाबू-चपरासी से ब्याह देते, कुछ भी करके वह प्रायवेट स्कूल में तो पढ़ाता लड़की को!
उधर सरकारी स्कूल में ज़रूर हड़कंप मच गया होगा। मास्टर-मास्टरनियाँ गमज़दा होकर माथा ठोक रहे होंगे, बुरा हो इस ‘कलेक्टर’ का, अब तो रेगुलर स्कूल जाना पड़ेगा और पढ़ाना भी पड़ेगा, वर्ना यह कलेक्टर की बच्ची पूरे स्कूल की परेड निकलवा देगी।
इधर आई.ए.एस. अफसरों की लॉबी कोप भवन में चली गई होगी, नहीं गई हो तो एखाद दिन में चली जाएगी और वहाँ उन ‘कलेक्टर साब’ को बुलाकर उनकी खबर लेगी- क्यों जी, यही हरकतें करना थीं तो आई.ए.एस. अफसर क्यों बने ? नाक कटवा दी तुमने पूरी बिरादरी की, अब कहाँ जाकर जुड़वाएँ ?
‘कलेक्टर साब’ कहेंगे-जनाब, मैंने तो आदर्श स्थापित करने की कोशिश की है!
लॉबी नाराज़ होकर कहेगी - श्रीमान जी, बच्चों के फ्यूचर का रिस्क लेकर कभी आदर्श स्थापित किया जाता है ? और कुछ नहीं मिला आपको स्थापित करने के लिए! ए.सी. गाड़ी छोड़ देते, चपरासी की साइकिल के कैरियर पर बैठकर दफ्तर आना-जाना करते! न रहते इतने बड़े बँगले में, किसी घटिया से क्वार्टर में रहने चले जाते! लड़की को सरकारी स्कूल में डालने की क्या सूझी आपको ?
‘कलेक्टर साब’ नम्रता से कहेंगे-सर मेरी तो राय है कि सभी सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों को अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाना चाहिए........!
लॉबी कहेगी-पागल कुत्ते ने काट लिया आपको ? या आपका दिमाग चल गया है ? हम अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएँगे तो फिर चल गया देश। हमें और हमारी सात पुश्तों को देश चलाना है, देश के साथ चलना नहीं है।
‘कलेक्टर साब’ कहेंगे-मगर सर, इससे शिक्षा का स्तर सुधरेगा, सरकारी स्कूलों की स्थिति सुधरेगी।
लॉबी नाराज़ हो जाएगी- आप क्या शिक्षा शास्त्री हैं जो शिक्षा का स्तर सुधारेंगे ? और किसने कहा आपको सरकारी स्कूलों की स्थिति सुधारने को ?
‘कलेक्टर साब’ कहेंगे-सर किसी के कहने की क्या ज़रूरत है, यह मेरा फर्ज है।
लाबी फिर नाराज़ी ज़ाहिर करेगी-मिस्टर ये फालतू के फर्ज़-अर्ज़ भूल जाइए, सरकार ने आपको जो महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ दी है उन्हें निभाइये। जाइये पहले लॉ एंड आर्डर की स्थिति देखिये, कहीं असंतोष पनप रहा हो तो उसे दबाइये, कहीं विरोध सर उठा रहा हो तो उसे कुचलिए, चले हैं बच्ची को सरकारी स्कूल में पढ़ाने।
‘कलेक्टर साब’ अपना सा मुँह लेकर बाहर आ जाएँगे। घर-परिवार और ससुराल वाले, नाते-रिश्तेदार इस मुद्दे पर उनकी जितनी छीछालेदर नहीं कर पाएँगे, उससे कई गुणा ज़्यादा उनकी अपनी लॉबी कर देगी। बेचारे ‘कलेक्टर साब’ का साहसिक फैसला उनके लिए एक बड़ी मुसीबत बन जाएगा। ठहर जाओ ज़रा।

शुक्रवार, 24 जून 2011

सुविधाएँ-असुविधाएँ सबको समान


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//            
          कुछ लोग कहते हैं कि हमारे यहाँ दो देश अस्तित्व में हैं, एक घिसट-घिसट कर जीने वाले गरीबों का और दूसरा लाखों-करोड़ों की अंधाधुध कमाई वाले रईसों का। कुछ लोगों का कहना है कि गरीबों के लिए यहाँ समुचित व्यवस्थाएँ हैं ही नहीं, उन्हें हर समय रोते-झीकते रहना पड़ता है और रईसों के लिए सुख-सुविधाओं का अंबार है जिनका उपभोग करते हुए वे चैन की बंसी बजाते हैं।
          मैं पूछना चाहता हूँ कि जब करोड़पतियों पर एफ.आई.आर. दर्ज होती है तो पुलिस उन्हें घसीटती, इज्ज़त का पंचनामा बनाती भले न ले जाए, मगर क्या उनके लिए अलग थाना-कचहरी होती है ? वे भी उसी तरह धक्के खाने को मजबूर होते हैं जैसे हालात का मारा एक मामूली चोर या गिरहकट धक्के खाता है। राजधानी दिल्ली की तिहाड़ जेल क्या मात्र रईसों के लिए है ? क्या वहाँ सिर्फ राजा, कलमाड़ी, कनिमोझी और दूसरे करोड़पति घपलेबाज़ों भर को रखा जाता है, एक मामूली चोट्टा वहाँ सज़ा नहीं काटता ? क्या कलमाड़ी और कनीमाझी को वहाँ चुभने वाले कम्बल पर नहीं सोना पड़ता ? नहाने-धोने या खाने के लिए लाइन में नहीं लगना पड़ता ? क्या उन्हें वहाँ स्पेशल चाय मिलती है या पनियल दाल में दाल के कुछ दाने ज़्यादा और रोटी में कंकड़ कम मिलते हैं। जी नहीं, चाहे अमीर हो या गरीब सुविधाएँ-असुविधाएँ सबको समान रूप से मिलती है, यही हमारे देश के प्रजातंत्र की खूबी है।
          सरकारी स्कूल, जहाँ क्लासरूम से लेकर मास्टर तक और चॉक से लेकर ब्लेकबोर्ड तक सब कुछ नदारत रहता है, क्या बड़े लोगों के लिए नहीं होते। हाल ही में एक कलेक्टर साहब ने अपनी बिटिया को सरकारी स्कूल में डालकर क्या यह साबित नहीं किया कि चाहे तो कोई भी बड़ा आदमी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ा सकता है, और जब कोई भी पढ़ा सकता है तो फिर मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ा सकते हैं। ऐसा थोड़े ही है कि जर्जर सरकारी स्कूल की फटी टाट-पट्टियाँ और टपकती छतें मध्यान्ह भोजन के भरोसे रहने वाले गरीब-गुरबों भर के लिए हैं और किसी के लिए नहीं। देश में जो चाहे इसका आनंद ले सकता है।

शनिवार, 18 जून 2011

बनना ही चाहिए एक दुष्टता मापी यंत्र


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//         
            इंसान के अन्दर दुष्टताका एक नैसर्गिक गुण इस कदर कूट-कूट कर भरा हुआ है कि मत पूछिए। नाना प्रकार की दुष्टता से लैस कई बंदे हमारे इर्द-गिर्द पसरे पड़े हैं जो हमारी नाक में दम कर रखते होंगे। कोई, ठीक घर से बाहर निकलते ही आपके ऊपर कचरे का अभिषेक कर यह जता देता होगा कि कल रात उसने क्या खाया है, कोई रोज़ आपकी मोटर साईकिल से पेट्रोल चुराता और कोई उसकी हवा निकालकर अपनी दुष्टता का प्रदर्शन करता होगा। मेरी बिल्डिंग में एक दुष्ट को सबकी कॉलबेल बजाकर भागने का शौक है, वह एक साथ दो या अधिक लोगों की कॉलबेल बजाकर उनको आपस में लड़ाने में महारत रखता है।
          राजनैतिक क्षेत्र में भी दुष्टों का बड़ा वर्चस्व रहता आया है, वे अपने इस विलक्षण गुण की बदौलत सबको ठेलते हुए शीर्ष पर पहुँच जाते हैं। मौजूदा गठबंधन की राजनीति में खासतौर से दुष्टों की ही मौज है। एक अदद समर्थन के बदले वे पूरी मिनिस्ट्री हथिया लेते हैं। सरकारी क्षेत्र में, जहाँ कुछ भ्रष्ट लोग चूहों की तरह देश को कुतर-कुतर कर खाने में लगे रहते हैं वहाँ कुछ उनसे भी बड़े दुष्ट उनके खाने पर नज़र गढ़ाए उनके पास जा पहुँचते हैं- क्यों जी, अकेले-अकेले खा रहे हो, हम क्या तुम्हारा मुँह देखें ? भ्रष्ट कहता है- दुष्ट कहीं का, आ गया हिस्सा माँगने। दुष्ट इस तरह अपनी दुष्टता की दम पर जगह-जगह से हिस्सा बटोरता हुआ आराम से घर-परिवार के खर्चे चलाता रहता है।
          दुष्टता के मामले में प्रेमिकाओं का कोई सानी नहीं है, मौका लगते ही वे प्रेमियों को ऐसे टुँगाती हैं कि पूछो मत। अपनी बात मनवाने के लिए वह भोले-भाले प्रेमी से नाक रगड़वा लेती है, कान पकड़कर उठक-बैठक लगवा लेती है, और कोई प्रेमिका तो शायद बीच बाज़ार में प्रेमी को मुर्गा बनाकर मजे़ लिया करती हो। आजकल मोबाइल दुष्टतापूर्वक एक दूसरे को सताने के प्रभावी यंत्र के रूप में सामने आया है।
          देश में तापमापी यंत्र है, वर्षामापी यंत्र है, शुष्कतामापी यंत्र है, आद्रतामापी यंत्र है, मगर दुष्टतामापी यंत्र नहीं है। इस बढ़ती जा रही दुष्टता को कंट्रोल में रखने के लिए एक अदद दुष्टतामापी यंत्र होना ही चाहिए।

शुक्रवार, 17 जून 2011

जिसका जो काम है, वही करे


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
          देश के कई मनीषियों का मत है कि जिसका जो काम है उसे वही करना चाहिए। यानी चोर को चोरी करना चाहिये, डकैत को डकैती डालना चाहिये, ठग को ठगी करना चाहिये, रिश्वतखोर को रिश्वतखोरी करना चाहिए। चोर अगर रिश्वत लेने लगे और ठग डकैती डालना शुरु कर दे तो यह निहायत ही अनैतिक बात होगी। दुष्ट पुलिस डंडे भाँजने की बजाय भजन-कीर्तन करती नज़र आए तो यह उसकी नालायकी होगी। जिनका काम कमर मटकाकर भाँडगिरीकरना है वे प्रवचनदेने लगें तो यह बात भी नैतिकता की परिधि में नहीं आती है। नेता-मंत्री कार्पोरेट घरानों की दलाली करें यहाँ तक तो ठीक है, मगर वे खुद अपनी काली कमाई से एक कार्पोरेट घराना बनकर बैठ जाएँ तो बात कतई पाचन योग्य नहीं है। पूँजीपतियों को चाहिये कि वे घर में बैठकर आराम से गरीब-मजदूरों और आम जनता का खून चूसें मगर वे खद्दर पहनकर राजनीति में आ जाते हैं तो यह मनीषियों के मत का सरासर अपमान है।
          दिल्ली प्रशासन ने बाबा रामदेव को जबरदस्ती इसीलिए पतंजलि आश्रम की ओर खदेड़ दिया कि वे वहीं रहकर अपना काम करें। बाबा प्राणायाम और योग-आसनों के दम पर कई सारे असाध्य रोगों का इलाज करते हैं, जो बड़े-बड़े डॉक्टरों के बस में नहीं रहे। फिर स्वास्थ्य महकमों की हरामखोरी की वजह से देश भर में भरे पड़े नाना प्रकार के मरीज़ों की दवा-दारू नहीं हो पाती है, इसलिए देश को बाबा रामदेव की स्वास्थ्य सेवाओं की सख्त आवश्यकता है, वे मानव-मात्र की सेवा के इस पुनीत कर्म को छोड़कर पापी राजनीति में घुसे चले आ रहे थे, इसीलिये दिल्ली पुलिस ने उन्हें अपने कर्तव्य पथ से भटकने से बचाने के लिए उनके अनशनरत् अनुयाइयो की हड्डियाँ-पसलियाँ तोड़कर रेडीमेड मरीज़ उपलब्ध करा दिये हैं, कि लो अब इनसे कपालभाती, अनुलोम-विलोम, भ्रामरी करवाकर इनकी बिखरी हुई हड्डियाँ जोड़ने में अपना बाकी समय व्यतीत करो।
          आज़ादी आन्दोलन के समय मजदूर सिर्फ मजदूरी करते थे, किसान सिर्फ किसानी करते थे, छात्र-नौजवान सिर्फ मटरगश्ती करते थे और स्त्रियाँ सिर्फ चूल्हा-चौका और बच्चे पैदा किया करती थीं। इनमें से अगर कोई भी आज़ादी की लड़ाई की तरफ झाँकता तो कसम से हम कभी आज़ाद नहीं हो पाते

मंगलवार, 14 जून 2011

मुल्तवी अनशन


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//        
          कुछ अनशनाभिलाशियों का एक जत्था अनशन करने की अनुमति लेने के लिए सक्षम अधिकारी के पास पहुँचा, सक्षम अधिकारी ने उन्हें बुलाकर पूछा - काहे अनशन करना चाहते हो रे तुम लोग ? जत्थे का नेता सामने आकर बोला- माईबाप, भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया है, इसलिए। अधिकारी बोला - भ्रष्टाचार बढ़ गया! यह किसने बताया तुम लोगों को ? नेता बोला- बताने की क्या बात है हुजूर, आपके चपरासी तक ने अन्दर आने देने के लिए हमसे दस-दस रुपये लिए हैं, कहता था कि वैसे तो आम जनता से और ज़्यादा लेते हैं, पर तुम लोग गाँधी जी के रास्ते पर चलने निकले हो, पता नहीं हाथ पॉव सलामत लेकर घर जाओ न जाओ, इसलिए दस रुपये में ही काम चला रहे हैं। अधिकारी हँसकर बोला- अच्छा अच्छा, बोलो कितने दिन की अनुमति चाहिए ? अनशनकारियों ने आपस में सलाह की और बोले-साहब, अनिश्चित काल की दे दो आप तो। सक्षम अधिकारी नाराज़ होकर बोला- अच्छा, ऐसे कैसे दे दो अनिश्चितकाल की! तुम्हारे बाप का राज है क्या ? और लोगों की भी तो अर्जियाँ पड़ी हैं, सबको अनशन करना है, तुम्ही को सारी दे दें तो फिर दूसरों को क्या देंगे ?
          सबने मिलकर सलाह की और बोले ठीक है साहब, पन्द्रह दिन की दे दो। सक्षम अधिकारी ने न में मुंडी हिलाई तो जत्था बोला- ठीक है सात दिन की दे दो। सक्षम अधिकारी ने फिर न में मुंडी हिलाई, इस पर जत्थे का नेता बोला अच्छा तीन दिन की ही दे दो। सक्षम अधिकारी बोला- सिर्फ एक दिन की मिलेगी, बोलो लेना है तो लो। करना क्या है, साल भर भी अनशन करोगे तो भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं है, इससे अच्छा एक दिन शांतिपूर्वक अनशन करो और अपने-अपने घर जाओ।
          अनशनकारियों ने आपसी सलाह करके हामी भरी और फिर हाथ जोड़कर खड़े हो गए। सक्षम अधिकारी ने सबको घूरते हुए देखा और कहाँ- लेकिन यह एक दिन की भी तब मिलेगी जब हमारी शर्ते मानी जाएँगी। सारे लोगों ने शर्तें सुनने के लिए अपने-अपने कान खड़े किये तब अधिकारी बोला- अनुमति सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन की है, काले धन के ऊपर कोई नारा नहीं लगाएगा। माँगों की सूची पर हमारा अनुमोदन आवश्यक है। हमारे सर्टीफाइड अनशनकारियों के अलावा कोई दूसरा आदमी अनशन स्थल पर बगैर इजाज़त घूमता पाया गया तो उसे गिरफ्तार कर लिया जाएगा। महिलाएँ सिर्फ एक जोड़ी कपड़ों में बैठेंगी। कोई प्रेस, मीडिया वाला उधर न फटके इसकी जिम्मेदारी आपकी होगी। भ्रष्टाचार समर्थकों के हमले में यदि कोई घायल हुआ या प्रशासन को आप लोगों के हाथ-पॉव तोड़ना पड़े तो फर्स्ट-एड की व्यवस्था आपको करनी होगी। गंभीर एवं मरणासन्न मरीज़ों के इलाज, कफन-दफन का इंतज़ाम आप लोगों को अपने खर्च पर करना पडे़गा। इतना सुनने के बाद अनशनकारियों ने एक दूसरे की शक्ल देखी, सक्षम अधिकारी के पॉव छुए और चेम्बर के बाहर का रास्ता पकड़ते हुए कहा-हुजूर हमने अनशन का इरादा मुल्तवी कर दिया है, हमारी दरखास्त रद्द कर दी जाए। जयहिन्द।

शनिवार, 11 जून 2011

जूते-जूते पर लिखा है खाने वाले का नाम


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
          जैसे दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है उसी तरह शू फैक्ट्री में किसी जूते के आकार लेते न लेते उस पर उसे खाने वाले का नाम लिख जाता है। पुराने ज़माने में जूतों पर ज़्यादातर गरीब-मज़लूमों, छोटी जातियों, राजनैतिक विरोधियों, जेबकटों, चोर-उचक्कों, लड़की छेडने वाले शोहदों और घरेलू औरतों का ही नाम लिखा होता था मगर कालान्तर में इन पर बड़े-बड़े नामी-गिरामी नेताओं, राष्ट्राध्यक्षों का नाम लिखा जाने लगा।
          जूतों पर यह नामांकरण राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं से परे सार्वभौमिक स्तर पर होता है। अर्थात, लंदन में बने जूते के ऊपर ज़रूरी नहीं कि ब्रिटिश जूते खाउओं का ही नाम लिखा हो, चीनी, पाकिस्तानी या दीगर किसी भी मुल्क के जूता खाने योग्य विशिष्ट-जन का नाम लिखा हो सकता है, और खाड़ी देशों में अथवा एशिया भर में कहीं भी बने जूते पर किसी भी ब्रिटिश, अमरीकी जूता खाऊ का नाम लिखा होना पाया जा सकता है। भूमंडलीकरण के दौर का तकाज़ा है कि दुनिया में कहीं भी बना जूता किसी भी देश के नागरिक से किसी भी देश का नरपुंगवखा सकता है। यानी, जूता किसी मुल्क का, जूता खाने वाला किसी मुल्क का, जूता मारने वाला किसी और मुल्क का व जूता-चालन की घटना किसी और ही मुल्क में होना देखा गया है। काल आने पर ये सभी कारक नाना दिशाओं से एक जगह इकट्ठा होकर जूतम-पैजार की एक महान क्रांतिकारी घटना को जन्म देते हैं।
          बगदाद में बुश को जो जूता घला वह मेड इन ईराक नहीं था मगर उस पर नाम लिखा होने की वजह से बुश उसे खाने के लिए बगदाद जा पहुँचे। चीन के प्रधानमंत्री जियाबो को लंदन में जूता पड़ा और मारा एक जर्मन छात्र ने, हो सकता है जूता चायनीज़ हो याकि जर्मन या ब्रिटिश भी हो सकता है। ऐसे ही मुशर्रफ को भी लंदन में अपना नाम लिखा जूता खाने पहुँचना पड़ा।
          दो भारतीय गृहमंत्रियों को जूतों का आक्रमण झेलना पड़ा, जूते कहाँ के बने थे पता नहीं, हो सकता है इंपोर्टेड हों। अभी हाल ही में कांग्रेस प्रवक्ता को भी अपना नाम लिखे जूते के दर्शन हो ही गए। सही है जूते-जूते पर लिखा है खाने वाले का नाम।

गुरुवार, 9 जून 2011

तिहाड़ में आर्थिक घोटालों की ट्यूटोरियल क्लास


व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट
           तड़का’-तिहाड़ दुर्दान्त कैदी एसोसियेशन ने प्रधानमंत्री से मीटिंग करवाने की ज़िद पकड़कर जेल में अचानक असहयोग आन्दोलन और अनशन प्रारम्भ कर दिया। असहयोग स्वरूप सारे दुर्दांत कैदियों ने घर और होटलों का बना स्वादिष्ट मुगलई, चाईनीज़ खाना, शराब, मुर्ग-मुसल्लम, ड्रग्स, बीड़ी-सिगरेट, मोबाइल-टी.वी. इत्यादि-इत्यादि सुविधाएँ त्यागकर जेल की दाल-रोटी खाना प्रारम्भ कर दिया और अनशन स्वरूप गाली-गलौज, मारपीट, राड़ा बंदकर जेल के आन्तरिक प्रांगण में त्याग की मूर्ति बने योग मुद्रा में जा बैठे।  जेल प्रशासन कैदियों के इस अप्राकृतिक व्यवहार से तनाव में आ गया और उन्होंने तुरत-फुरत अपने उच्च अधिकारियों से बात कर प्रधानमंत्री से उनकी मीटिंग फिक्स करवाई, स्वयं जेल मंत्री कैदियों के प्रतिनिधिमंडल को लेकर प्रधानमंत्री निवास पहुँचे। मीटिंग प्रारम्भ हुई। प्रधानमंत्री ने बिना मुस्कुराए कहा- हाँ भई, बताइए क्या समस्या है !
          कैदियों का एक प्रतिनिधि बोला-साहब, हमारे ऊपर सरासर अत्याचार किया जा रहा है। एक के बाद एक बड़े-बडे कैदी अगर यूँ आप तिहाड़ में रहने के लिए भेजते रहे तो फिर हम कहाँ रहेंगे! हमें अपने अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी चाहिये।
          प्रधानमंत्री ने कहा-देखिए, देश में डेमोक्रेसी है, जेलें सभी के लिए बनी हैं, हमें सभी की सुविधाओं का ध्यान रखना पड़ता है। तिहाड़ कोई आपकी बपौती तो है नहीं! उस पर जितना हक आपका है उतना ही राजाऔर कलमाड़ीका भी है।
          एक महिला कैदी उत्तेजित होती हुई बोली-लेकिन सर, कनिमोझीजैसी कविमनामहिलाओं को आप तिहाड़ अलॉट कर दें यह अच्छा नहीं है। महिला अपराधियों में भारी रोष है।
          प्रधानमंत्री बोले-नहीं नहीं, कैदी बहनों का यह रोष एकदम अनुचित है। कनिमोझीजैसी भद्र महिलाएँ देश की गौरव हैं उन्हें हम तिहाड़ नहीं तो फिर कहाँ भेजेंगे!
          एक अन्य प्रतिनिधि बोला- प्रधानमंत्री जी, आपसे अनुरोध है कि आप ऐसे बड़े-बड़े कैदियों के लिए एक अलग जेल का निर्माण कराएँ। इन लोगों के आने से तड़काके सदस्यों के बिगड़ने की संभावनाएँ बढ़ गईं हैं। सोचिए हत्या, लूट, बलात्कार और दूसरे छोटे-मोटे अपराधों में तिहाड़ में आराम कर रहे भाई लोग बाहर निकलकर स्पेक्ट्रम घोटाले करने लगेंगे तो आपको कैसा लगेगा।
          प्रधानमंत्री बोले- मुझे बहुत अच्छा लगेगा। कब तक वे अपनी प्रतिभा को यूँ छोटे-मोटे अपराधों में ज़ाया करेंगे! प्रगति करना कोई बुरी बात नहीं है। यह उनके लिए एक सुनहरा अवसर है, वे हमारी इन राष्ट्रीय विभूतियों से कुछ सीखें।
          इसके बाद प्रधानमंत्री ने घड़ी देखकर मीटिंग समाप्ति का भाषण प्रारम्भ करते हुए कहा-सज्जनों और देवियों, हम तेज़ी से दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बनने की ओर अग्रसर है, ऐसे में हम बड़े-बड़े आर्थिक अपराध मनीषियों की ओर बड़ी आशा से देख रहे हैं। आप लोग टुच्चे अपराधों को तिलांजलि देकर बड़े आर्थिक अपराधों में पारंगत हों, यह देश के आर्थिक विकास के प्रति आपका महत्वपूर्ण योगदान होगा। आप सबका धन्यवाद, अपने-अपने बैरकों में वापस जाइये और हमें सहयोग कीजिए। जयहिन्द।
          सारे कैदी मुँह फुलाकर वापस तिहाड़ लौट आए और अनमने से राजा, कलमाड़ी तथा कनिमोझी की विहंगम आर्थिक घोटालों की ट्यूटोरियल क्लास का इंतज़ार करने लगे।

शुक्रवार, 3 जून 2011

रेलों में दुनिया जहान


//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//      
          सुदूर अन्तरिक्ष की यात्रा जितनी सरल होती जा रही है, भारतीय रेल की यात्रा करना उतना ही कठिन होता जा रहा है, क्योंकि वे दिन-रात, बारहों महीने हर घड़ी हर पल मुसाफिरों और उनके सामान से गचागच भरी होती हैं। आजकल गर्मी की छुट्टियों में तो जिसे देखो वह बोरिया-बिस्तर लपेटे रेलों में भीड़ बढ़ाने के लिए दौड़ा पड़ रहा है।
          एक तरह से देखा जाए तो यह ठीक भी है, क्योंकि जो लोग रेलों में भीड़ मचाने की महती जिम्मेदारी सम्हाले हुए हैं यदि वे सभी एक ही समय में रेल की बजाय किसी भी शहर में उपस्थित हो जाएँ तो शहर की सारी व्यवस्थाएँ चरमरा कर धराशायी हो जाए। एक मायने में भारतीय रेलें लाखों लोगों को अपनी छाती पर लिए आबादी से फटे पड़ रहे हमारे शहरों को अनावश्यक बोझ से बचा रही हैं, भले ही उस बोझ से रेल की पटरियाँ चपटी हुई जा रही हों।
          आपको कभी रेल में सफर करने की आपात स्थिति का सामना करना पड़े तो मजाल है आप किसी भी शहर के लिए किसी भी श्रेणी में, किसी भी कोटे में, किसी भी प्रकार का आरक्षण पाने में सफल हो जाएँ। आप यदि मन कड़ा करके तत्कालकोटे तक में लुटने को तैयार बैठे हों तब भी आपको भारतीय रेलवे की तरफ से यह सौभाग्य नहीं मिल पाएगा। आप दिल्ली जाना चाहेंगे तो उधर की सारी रेलें लदीफदी मिलेंगी, और मुंबई जाना चाहेंगे तो उधर की भी रेलें आपको फुल मिलेंगी। ऐसा नहीं होगा कि तमाम भीड़ दिल्ली जा रही हो तो मुंबई की ओर जाने वाली गाड़ियाँ खाली मिल जाए और आप आराम से बर्थ पर पॉव पसार कर सफर कर सकें। बिहार की तो किसी भी ट्रेन में, आप कहीं लेट्रिन में बैठकर सुभीते से सफर न कर लें इसलिए बिहारी पहले ही से लेट्रिन में बिछाअत करके डले हुए मिलेंगे और आपके छत की ओर आशा की नज़र से देखने से पहले ही वे छत पर जा चढ़ेंगे।