//व्यंग्य - प्रमोद ताम्बट //
गुरुवार, 20 मार्च 2025
ट्रम्प की लात
मंगलवार, 18 मार्च 2025
हज़ार मर्ज़ों की दवा खरीददारी की बीमारी
//व्यंग्य- प्रमोद ताम्बट//
सपनों
में आप खुद को झोला उठाए बाज़ार में घूमते दिखायी दें,
बड़े-बड़े
शो रूम मॉल्स की चकाचौध आँखों के सामने पिक्चर सी घूमती रहें,
फ़ूड
जोन, खस्ता चाट-पकौड़ी
की खुशबुओं से नथूने फड़कते रहें, कदम
बार-बार बिस्तर पर ही आपो-आप बाज़ार की ओर चल पड़ने को आतुर हों और साथ-साथ हाथ
में प्रचंड खुजली सी भी मचती रहे तो समझ लीजिए आपको खरीददारी की बीमारी ने जकड़ लिया
है। इस स्थिति में आप जब तक बाज़ार जाकर चार-छः घंटों का क़त्ल कर के आठ दस झोले-झाँगड़े
हाथों में लटकाएँ ओला-उबर से थके-हारे घर नहीं लौटोगे तब तक इन रोज़ परेशान करने
वाले सपनों की वजह से आपको रात-रात भर नींद नहीं आएगी । यदि आप घोड़े बेचकर चैन से
सोना चाहते हैं तो आपको समय-समय पर बाज़ार की तरफ दौड़ लगाना ही पड़ेगी चाहे आपकी
जेब में पैसे हों या न हों।
यकीन
मानिए इस चरम पूँजीवादी मारामारी के दौर में खरीददारी की यह संक्रामक बीमारी आम
आदमी के लिए अपने-आप में ख़ुद एक बहुत बड़ी प्राणदायी दवा बन गई है। दुनिया में
कुछ भी उठापटक चलती रहे, बाज़ार
उन्वान पर हों या ध्वस्त होते रहें, अर्थव्यवस्था
रेंग रही हो या उड़ रही हो, आपकी
माली हालत खस्ता हो तब भी खरीददारी की यह बीमारी स्थाई भाव से अपनी जगह बनी रहती
है और बाकायदा स्वास्थ्यवर्धक टॉनिक का सा काम भी करती रहती है। इस दवा के
सामने कोई ताकतवर से ताकतवर लाइफ़ सेविंग ड्रग भी टिक नहीं सकती। कभी तबियत नासाज़
रहे रात भर नींद न आए या उचटी-उचटी सी आती-जाती रहे,
सुबह
उठते से ही आँखों के आगे अंधियारा सा छाया रहता हो। रह रह कर घुमेरी आती हो।
चाय-नाश्ते की भी इच्छा ना हो। नहाने धोने सजने संवरने,
तैयार
होकर मटकने का भी मन न हो, प्राण
निकले पड़ रहें हों तो आप फौरन अपना क्रेडिट कार्ड या डेबिट कार्ड उठाकर बाज़ार की
तरफ़ निकल जाइये,
बस फिर देखिए कैसे आपके प्राण वापस लौट आते हैं। कहीं जम के मुँह की खानी पड़ी हो,
कहीं
पिट-पिटा कर आएँ हों, परीक्षा
में फेल हो गए हों, प्रेमी-प्रेमिका
से ब्रेकअप हो गया हो, इंडिया
क्रिकेट मैच हार गई हो, मूढ
बेहद खराब हो, बस
उठकर चल दीजिए बाज़ार की ओर। बाज़ार में
अगर आपने डॉक्टर की फ़ीस, पैथालॉजिकल
टेस्टों और दवाओं की कुल कीमत से एक चौथाई कम रकम भी यदि खर्च कर ली तो समझ लीजिए
आपकी बीमारी चंद लम्हों में छूमंतर हो
जाएगी। यकीन न हो तो आज़मा कर देख लीजिए।
बात
दरअसल यह है कि वैश्विक व्यापार व्यवसाय लॉबी ने खरीददारी की इस बीमारी को एक
महत्वपूर्ण अल्टरनेटिव थेरेपी के रूप में ईजाद किया है और उसे गीता-रामायण से भी
ज़्यादा प्रचारित प्रसारित किया है क्योंकि उनका मानना है कि उपलब्ध दवाओं से
हमेशा की तरह बस मर्ज़ ही बढ़ते रहें और मरीज़ दम तोड़ते रहें तो उनके व्यापार-धंधों
का क्या होगा। एक दिन दुनिया का सम्पूर्ण बाज़ार ख़रीददार विहीन हो जाएगा।
दुकानों शोरूमों पर ताले लग जाएँगे। कॉर्पोरेट दफ्तर और बिज़नेस हब सूने हो
जाएँगे। तिजोरियाँ भूखे पेट पड़ी रहने का मजबूर हो जाएँगी। सरकारों के पास भी करने
के लिए कोई काम नहीं रहेगा। इसलिए उन्होंने बहुत शोध-अनुसंधानों के पश्चात यह
थेरेपी ईजाद की है और अब इसका उपयोग घर-घर में किया जाकर स्वास्थ्य लाभ लिया जाने
लगा है।
मगर
इधर चिकित्सा विज्ञान की दवा-गोली इंजेक्शन ब्राँच ने इस बात पर गंभीर आपत्ति ली
है और हड़ताल इत्यादि करने की धमकी देकर विरोध दर्ज करा रखा है क्योंकि उनके
मुताबिक अगर ख़रीददारी से ही मरीज़ ठीक होते रहे तो उनके दवा-गोली निर्माण के धंधे
पर संकट आ सकता है। अस्पतालों, दवा-दारू
की फैक्ट्रियों दुकानों, पैथोलॉजी
सेंटरों, आधुनिक
टेस्ट प्रणालियों के भट्टे बैठ सकते हैं।
आम
पब्लिक को भी यदि अपनी बीमारियों को ठीक करने के लिए दवा-दारू और खरीददारी में से
कोई एक सुविधा चुनने के लिए कहा जाए तो वह भी शर्तिया खरीददारी को ही
चुनेगी,
क्योंकि पैसे तो आख़िर दोनों प्रकार की बीमारियों में खर्च होते हैं चाहे वह
खरीददारी की बीमारी हो अथवा शारीरिक बीमारी। जिस बीमारी से बांछे खिल-खिल उठती
हों वह बीमारी है असल बीमारी। खरीददारी की बीमारी दुनिया की एक मात्र ऐसी बीमारी
है जो खुद तो खतरनाक बीमारी है मगर हज़ार मर्ज़ों दवा भी
है।
सोमवार, 17 मार्च 2025
ट्रेन का इंतज़ार करता आदमी
//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
ट्रेन अपने निर्धारित समय से
प्लेटफार्म पर आ जाए यह अपने आप में बहुत ही विस्मयकारी बात होती है। समय पर आ गई
ट्रेन को प्लेटफार्म पर खड़ा यात्री भौंचक्का
सा ताकता रहता है, सोचता है
चढ़ू कि न चढ़ू! चढ़ जाऊँ तो ऐसा न हो कि किसी और ट्रेन में चढ़ कर किसी और स्टेशन
पर उतार दिया जाऊँ। वह असमंजस
में होता हैं कि समय से आ गई यह ट्रेन कहीं वो ट्रेन तो नहीं जिससे हमें जाना ही
नहीं है। क्योंकि जिस ट्रेन से हमें जाना होता है वह तो कभी समय पर आने की आदी ही
नहीं होती ।
ट्रेन का इंतज़ार करते आदमी
को देखिए,
दुनिया
भर की उदासी थोबड़े पर लिए वह इत्मिनान से ट्रेन का इंतज़ार करता रहता है। उसका
इत्मिनान इतना गहरा होता है कि उस दिन ट्रेन न भी आए तब भी वह इत्मिनान से प्लेटफार्म
पर डला ट्रेन का इंतज़ार करता उदास बैठा रह सकता है। क्योंकि बिना घंटों ट्रेन का
इंतज़ार किए ट्रेन में चढ़ने को मिल जाए ऐसी भारतीय ट्रेन लानत के समान है ।
समय पर आ गई ट्रेन में
पूछताछ कर आदमी चढ़ भी जाए लेकिन अपनी सीट पर बैठने में उसे बड़ा डर लगता रहता है
कि कहीं वह ग़लत ट्रेन में न चढ़ गया हो और उस ट्रेन का उस सीट का सही यात्री अगर
उसकी खोपड़ी पर आकर खड़ा हो जाये तो वह क्या करेगा। समय पर आ गई ट्रेन अगर
निर्धारित समय से 2 घंटा लेट चल रही दूसरी कोई ट्रेन
निकली तब तो वह बेटिकट हो जाएगा । ऐसे में अगर टीसी भी भाँप गया कि मुर्गा आ फँसा
है तो वो अलग जुर्माना और बेइज्जती दोनों साथ-साथ करेगा।
ऐसे बेटिकट यात्री की
दास्तान भी बड़ी दर्दनाक होती है । वह टिकट होते हुए बिना टिकट होता है और भी
रेलवे एक्ट,
1989
के सेक्शन 138
के मुताबिक बिना टिकट यात्रा करना दंडनीय अपराध है । उसे जुर्माने के साथ-साथ जेल
की हवा भी खाना पड़ सकती है। तो क्यों इत्ती रिस्क लेना। ट्रेनें चले जितना लेट
उन्हें चलना है कम से कम आदमी सही ट्रेन में बैठ कर जुर्माने और जेल से तो बच
जाएगा।
ट्रेन अगर समय पर प्लेटफार्म
पर आ लगे और आदमी समय पर घर पहुँच जाए तो बीवी आदमी को पहचानने से साफ इनकार कर
सकती है। बेकार में थाना पुलिस भी हो सकती है। उससे बेहतर है कि ट्रेनें बदस्तूर
लेट चलती रहें कोई परेशानी नहीं। आदमी महोदय प्लेटफार्म की निपट ठंडी बेंच पर
पटरियों पर से आने वाली दुर्दांत बदबू को सूँघते हुए घंटों डले रह सकते हैं। ट्रेन
का इंतज़ार करते आदमी के पास समय का कोई अभाव नहीं होता।
ट्रेन का इंतज़ार कर रहा
आदमी बार-बार चाय पीता है। गुटका तमाकू खैनी भी खाता रहता है। भूख लगती है तो
समोसा ब्रेड पकोड़ा और नहीं लगती है तब भी चिप्स कुरकुरे या हल्दीराम का कुछ न कुछ
चुगता रहता है। इससे अर्थव्यवस्था ऊपर उठती है। मेरी तो राय है कि हर स्टेशन के
हरेक प्लेटफार्म पर एक-एक गाँजा-भांग और कंपोजिट दारु की दुकान भी खोल देना चाहिए
और ट्रेन का इंतज़ार करते आदमी को चखना-सोड़ा पानी इत्यादि की पर्याप्त सुविधाएँ
उपलब्ध कराना चाहिए। ट्रेनों को अनिश्चितकालीन विलंब से चलने के सख़्त निर्देश
दे दिए जाना चाहिए ताकि लोग नशा-पत्ता कर प्लेटफार्म पर टुन्न पड़े रहें । सरकारी
खज़ाना भी भरता रहे और इतमिनान से ट्रेन का इंतज़ार भी होता रहे।
मेरे मत में तो लेट चल रही
ट्रेन का इंतज़ार करते आदमी को मुफ्त ख़ान-पान और दूसरे इंसेंटिव देना चाहिए। ताकि
ज़्यादा से ज़्यादा तादात में आदमी रेलवे स्टेशन पर आकर रात-दिन ट्रेन का इंतज़ार
करें। इस काम के लिए थोड़ा बहुत पारिश्रमिक भी दिया जा सकता है। इससे बेरोज़गारी
की विकट समस्या का भी निदान होगा। झुंड के झुंड बेरोज़गार युवा स्टेशन पर आकर
ट्रेन का इंतज़ार किया करेंगे और चार पैसे कमा कर अपना घर चलायेंगे।
चुनावी राजनीति की दृष्टि
से भी ट्रेन के इंतज़ार में प्लेटफार्म पर पड़े आदमी का काफी महत्व हो सकता है।
नेता लोग उसे ट्रेनों का हमेशा लेट होना सुनिश्चित करने और इंतज़ार की महत्वपूर्ण
घड़ियों में दी जाने वाली मुफ्त सुविधाओं से
संबंधित झूठे वादों के पुलिंदे पकड़ाकर उसका वोट झड़ा सकते हैं। कोई वादा न भी
किया जाए तब भी वह हमेशा की तरह उम्मीदा नाउम्मीदा वहीं पड़ा रहेगा । यही भारतीय
रेल यात्री की नियति है।
-०-
मंगलवार, 4 मार्च 2025
ट्रम्प क्यों कपड़े फाड़ रहा है
//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
देखा आपने,
ट्रम्प
आजकल किस कदर कपड़े फाड़ रहा है? और कुछ
फाड़ता तो समझ में आता मगर खुद आप अपने कपड़े फाड़ रहा है यह बड़ी ताज्जुब वाली
बात है। चाहता तो काग़ज़ फाड़ लेता, कॉपी-किताब
फाड़ लेता,
किसी
ओर के नाम का बिल फाड़ लेता, दरी-चादर,
रज़ाई-गद्दे-तकिये फाड़ लेता, वाइट हाउस
के ऊँचे-ऊँचे परदे फाड़ लेता मगर ऐसा क्या हो गया कि अगला अपने खुद के कपड़े
फाड़ने पर उतारू है।
एक बात लेकिन ग़ज़ब हो रही
है। कपड़े वह अपने फाड़ रहा है और उसकी इस नितांत निजी कार्यवाही के फलस्वरूप नंगा कोई और ही हो रहा है। होना यह चाहिए था कि
नग्नता उसकी खुद की सामने आना चाहिए थी लेकिन वह तो कम्बख़्त हमाम में भी सूट-बूट
डाटे डायस के पीछे खड़ा होकर प्रेस कान्फ्रेंस पर प्रेस कांफ्रेंस किये जा रहा है
और नंगा किसी और को होना पड़ रहा है। यह सरासर मानवाधिकार हनन का मामला है नग्नता
बचाओ नग्नता छुपाओ संस्थाओं ने इसका संज्ञान लिया जाना चाहिए।
वैश्विक चिंता की बात यह है
कि वह यदि अपने कपड़े फाड़ना मुल्तवी कर के इधर नंगे हो रहे महानुभाव के ही कपड़े फाड़ना शुरू कर दे
तो क्या होगा?
एक
नई कहावत अस्तित्व में आ जाएगी- नंगे के कपड़े फाड़ना। यह एक नया राजनीतिक समीकरण
टाइप बन गया लगता है जिसका भावार्थ यह है कि नंगों के बदन पर भी लकदक कपड़े होते
हैं जिसे कोई भी दूसरा छिछोरा व्यक्ति ख़ुद अपने कपड़े फाड़कर निर्वस्त्र कर सकता
है।
हमारे यहाँ तो लोग अपनी खुद
की शादी में जो सूट सिलवाते हैं उसे बेटे की शादी तक में रगड़ते हैं लेकिन ट्रम्प
की दरियादिली देखिए नवे-नकोरे इतने महँगे-महँगे रेमंड के सूट (माफ कीजिए लेखक को
एक इसी ब्रांड का नाम पता है ) जो उसने हाल ही में शपथ ग्रहण समारोह के ठीक पहले
सिलवायें थे,
इस तरह बेदर्दी से चर-चर करके फाड़ रहा है। शर्म यहाँ भारत में हमको आ रही है,
क्योंकि नंगा तो हमारा आदमी हो रहा है। ख़ुद अपने कपड़े फाड़ कर ख़ुद नंगा होये या
हमारे दुश्मनों को नंगा करे, हमारे
विरोधियों को नंगा करे, अजी चाहे
तो हमारे दोस्तों को भी नंगा कर ले तब भी हमें कोई परेशानी नहीं,
मगर ट्रम्प तो एक तरह से हमी को नंगा करने पर उतारू है भले ही कपड़े अपने खुद के फाड़
रहा है।
हमें आशंका है कि ट्रम्प अभी
और कपड़े फाड़ेगा। अपने सारे सूट, पैंट-शर्ट
यहाँ तक कि कच्छे बानियान तक फाड़ लेगा क्योंकि उसे पता है कि हम अभी और नंगे हैं।
हमें डर है कि हमारी नंगाई को सरे आम करने के लिए कहीं वह अपनी खाल ही न फाड़ ले
क्योंकि कपड़ों के बाद तो फिर खाल ही का नम्बर आता है फाड़ने के लिए। और अगर उसने
अपनी खाल फाड़ ली तो कसम से हम कहीं मुँह दिखाने के लायक भी रहेंगे या नहीं कह
नहीं सकते। क्योंकि उसने अगर अपनी खाल फाड़ी तो हमारी सौ साल से चली आ रही नग्नता
के दर्शन न हो जाएँ यह हमारी सबसे बड़ी चिंता है।
यह हमारा दुर्भाग्य है कि
हमारे पास न तो यह हुनर है न ही ऐतिहासिक बाध्यता कि कपड़े हम अपने फाड़े और नंगा
ट्रंप हो जाए। कपड़े हम अपने फाड़ें और नंगा अमरीकी प्रशासन हो जाए। कपड़े हम अपने
फाड़ें और नंगा अमरीकी साम्राज्यवाद हो जाए। क्योंकि यह हमारे खून में ही नहीं
रहा कभी। हम हमेशा से साम्राज्यवाद की चिरोरी चमचागिरी के आदी हैं। हमारे बदन पर
साम्राज्यवादी तमगों की भरमार है हम अपने कपड़े फाड़ें तो कैसे फाड़ें ?
हमने
ट्रंप का नमक खाया है।
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