मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

कुएं में कूदने के लिए टर्नआउट

//व्‍यंग्‍य-प्रमोद ताम्‍बट//

लो साब, मुझे अब पता चला कि 2024 में मैंने वोट डालने के लिए बूथ की तरफ़ जो टर्न लिया था उसके लिए अमेरिका ने पैसा दिया था, यह बात अलग है कि वह पैसा मुझे आज तक मिला ही नहीं है। 2024 में ही क्यों, उसके पहले 2019 में भी मैंने वोट डाला था और 2014 में भी। मतलब हर बार जब मैं वोट डालने के लिए बूथ की तरफ़ टर्न होता हूँ तो उसके लिए अमेरिका पैसा भेजता रहा है लेकिन वो पैसा मुझ तक कभी पहुँचता ही नहीं है, बीच में ही उसे कोई खा जाता है।

पहले कोई बूथ की तरफ टर्न ही नहीं होता था। खास कर के नौजवान कभी टर्न नहीं होता था क्‍योंकि उसका सोचना था कि वोटों की राजनीति से इस देश का कभी भला नहीं होने वाला। फिर अचानक पता नहीं कैसे नौजवान न केवल बूथ की ओर टर्न होने लगा बल्कि भर-भर के वोट भी डालने लगा। बड़ी तादात में नौजवान टर्न होकर वोट डालकर बदलाव के सपने देखने लगा। पता नहीं किसने किसको कितना पैसा भेजा था जो नौजवान लोगों में यह क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया था और वे देशभक्‍त वोटर बन गए। सभी हर बार बूथ की तरफ़ टर्न होकर किसी न किसी को वोट डालकर आने लगे मगर हर बार सबको इसी तरह बेवकूफ बनाया जाता रहा है। वो तो भला हो विश्‍व साहूकार ट्रम्प का जो उसने दुनिया भर को बता दिया कि लोकतंत्र से निराश लोगों के बूथ पर टर्नआउट होकर वोट डालने के लिए उन लोगों ने बड़ी भारी मात्रा में इधर डॉलर भेजा था। कौन कम्बख़्त सारा पैसा खा गया किसी को कुछ पता ही नहीं चला।

अब तो मुझे बुरी तरह शक होने लगा है कि हमारे देश के लोग जो कुछ भी हिलना-डुलना करते हैं अमेरिका सब के लिए पैसा देता है। मसलन देश क्या खाए-पीये, क्या सोचे-विचारे, क्या दुःख मनाए क्या खुशी मनायें, कब ताली-थाली बजाए, कब गोबर-गोमूत्र से नहाए, कब किसकी जय-जयकार करे, कब किसकी इज़्ज़त की मट्टी-पलीत कर दे, सबके लिए अमेरिका अवश्य ही पैसा भेजता होगा। पैसा किसी को मिलता नहीं यह बिल्कुल अच्छी बात नहीं है। लोग इतने भक्तिभाव से अमेरिका की फंडिंग का मकसद पूरा करते हैं तो लोगों को उनके लिए आया पाई-पाई पैसा दिया जाना चाहिए।

हाल ही में लोग बड़ी मात्रा में वेलेंटाइन वीक मनाने के लिए टर्न हुए, अवश्य ही इसके लिए भी अमरीका से पैसा आया होगा ताकि भारतीय लोग देशी के साथ-साथ विदेशी मार्केट को भी सीपीआर दे सकें । अभी कुंभ में बड़ी भारी संख्या में श्रद्धालुओं का टर्नआउट हो रहा है। इससे पहले कभी किसी कुंभ में ऐसा पागलपन भरा टर्नआउट देखने को नहीं मिला। बताइये भला इतनी बड़ी तादात में श्रद्धालुओं का कीचड़ में नहाने के लिए प्रयागराज की तरफ़ टर्न होने का कोई जायज़ कारण नज़र आता है क्या, सिवा इसके कि इस टर्नआउट के लिए भी अरबों-खरबों डॉलर अमेरिका से आया हो! पिछले कई सालों में धर्म और धर्मान्धता की तरफ़ बल्‍क टर्नआउट को देखते हुए भी यही शक गहराता है कि अमेरिका ज़रूर ही अपने बजट में कटौती कर के भारत को इसके लिए पैसा भेजता होगा और इससे यह भी खुलासा होता है कि हमारा देश जल्दी से जल्दी विश्वगुरु बन जाए अमेरिका को इसकी चिंता भी बहुत लगी रहती होगी और वह इसके लिए अपने बजट में विशेष प्रावधान भी करता होगा। इधर आकर पैसा जाता कहाँ है बस यही बात समझ में नहीं आती।

अमेरिका को दुनिया का बाप ऐसे ही तो नहीं कहा जाता । वाकई वो बाप बनकर सबकी आकांक्षाएँ पूरी करता है। जिसको जिस चीज़ के लिए पैसा चाहिए वह सांताक्‍लाज़ की तरह घर आकर देकर जाता है। बांगलादेश के लोगों को भी उसने अपने ही देश में आग लगाने के लिए पैसा दिया और उनका घर फूँक तमाशा भी देखा। दुनिया में जहाँ कहीं भी पैसे की आवश्यकता देखी जाती है अमेरिका वहाँ पैसा पहुँचाकर पब्लिक टर्नआउट की अपनी साम्राज्यवादी ज़िम्मेदारी अवश्य पूरी करता है।

अभी आजकल मुझे एक मर्सिडीज़ बेंज ख़रीदने के लिए शोरूम की तरफ़ टर्न होने की बड़ी इच्छा हो रही है, कोई बता सकता है क्या कि इसके लिए अमेरिका मुझे पैसा देगा या नहीं देगा। लोग प्रेस-मीडिया ख़रीद रहें है, पुलिस-प्रशासन ख़रीद रहे हैं, अदालत-क़ानून  ख़रीद रहे, लोकतंत्र के सारे स्तंभों को ख़रीदकर अपनी जेब में रख रहे हैं, कहीं से तो पैसा आ ही रहा है तब तो न इतनी खरीददारी चल रही है । अब पता चला अमेरिका हर चीज़ के लिए पैसा बाँटने के लिए तैयार बैठा हुआ है। बस टर्नआउट भर होने के लिए तैयार रहना है। कोई हमें कुएं में कूदने के लिए टर्नआउट कराना चाहे तो अमेरिका से पैसा लेकर करा सकता है। हम तैयार हैं।  

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शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

मोक्ष के दरवाज़े पर आपका स्‍वागत है

 //व्‍यंग्‍य-प्रमोद ताम्‍बट//

 कुंभ यात्रियों की भीड़ से खचाखच से भी ज्‍़यादा भरे दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ मचने से कई लोग मारे गए। इससे पहले कि कोई परम ज्ञानी संत घोषणा करे कि चूँकि मरने वाले कुंभ यात्री थे इसलिए भले ही लोग कुंभ की भगदड़ की बजाय स्टेशन की भगदड़ में मरें हों टिकट उनकी भी मोक्ष की ही कटेगी, मैं संतों से अपील करना चाहता हूँ कि मृतकों को भले ही मोक्ष मिले लेकिन भगदड़ के दोषियों को भी तो कुछ न कुछ मिलना चाहिए। मोक्ष के एजेंटों को यह साफ़ करना चाहिए कि भगदड़ के असली दोषी हैं कौन और मोक्षधाम में उनके लिए क्या सजा मुकर्रर की जाएगी? की भी जाएगी या वे वहाँ भी ले दे के छूट जाएँगे।

इधर अर्बन नक्सल लोग सवाल दाग़ रहे हैं कि गलती किसकी है, गलती किसकी है। हमको मालूम है कि सबको मालूम है गलती किसकी है, फिर भी गलती किसी की नहीं निकलने वाली और आरोप-प्रत्‍यारोप का सिलसिला हमेशा की तरह यूँ ही चलता रहेगा। विश्‍वस्‍त सूत्रों के अनुसार दक्षिण पंथियों द्वारा इस मामले में पश्चिमी वैज्ञानिक जेम्स वाट को फँसाया जा सकता है जिसने भाप के इंजिन का आविष्कार किया था। न वो यह वाहियात आविष्कार करता, न ट्रेन बनती, न रेलवे स्टेशन बनाना पड़ता, न स्टेशन पर भगदड़ मचती, न लोग मरते।

उधर वामपंथी सारा दोष वेदव्यास पर थोप सकते हैं। न वे विष्णु पुराण लिखते, न समुद्र मंथन होता, न अमृत निकलता, न इंद्रपुत्र अमृत कलश लेकर भागते, न प्रयागराज में कलश से अमृत टपकता, न प्रयागराज कुंभ का आयोजन होता, न लोग घर का बाल्‍टी मग्‍गा छोड़कर कुंभ स्नान के लिए पगलाते, न स्टेशन पर भीड़ लगाते, न भगदड़ मचती न लोग मरते।

कोई चाहे तो वास्कोडिगामा पर आरोप थोप सकता है उसने भारत की खोज क्यों कर दी जहाँ पौराणिक गपोडि़यों की बातों में आकर हर बारह साल में कुंभ का मेला भरता है। नदी में नहाने के लिए भीड़ लगती है, भगदड़ मचती है और लोग मरते हैं । किसी की इच्छा हो तो उसको दोष दे ले जिसने दिल्ली बसाई और उसे भी जिसने दिल्ली को राजधानी बनाया। फिर जिस किसी ने दिल्ली तक रेलवे लाइन और रेलवे स्टेशन का प्रस्ताव बनाया है उसकी भी लगे हाथ ऐसी तैसी कर ली जाए । न भारत की खोज होती न दिल्‍ली बसती न स्‍टेशन बनता न ट्रेनें चलती न लोग इकट्ठे होते न भगदड़ मचती न लोग मरते।

किसी की इच्छा हो तो दूरसंचार विज्ञान और टेक्नोलॉजी को कोस ले, न ये बलाएँ होतीं न संचार माध्यम होते न टी वी, मोबाइल होता न इंटरनेट होता, न फेसबुक वाट्सअप यूनिवर्सिटी होती न घर-घर में कुम्भ स्नान की महिमा का बखान पहुँचता न अंधविश्वासु लोग काम-धाम छोड़कर जत्थे के जत्थे बनाकर अपने पाप धोने के लिए प्रयागराज की और दौड़ पड़ते, न भगदड़ होती न लोग मरते। वैसे पापी, पाप और उसकी पानी में धुलनशीलता की अंध-अवधारणा का भी कम दोष नहीं लोगों को मौत की और दौड़ लगाने को मजबूर करने के लिए। लोग पापों से दूर रहकर धुले-पुछे नहीं रहना चाहते पाप करके मटमैली गंगा में डुबकी लगाकर पापों से मुक्ति चाहते हैं। उन्‍हें पता नहीं है लाखों की तादात में प्रदूषित पानी में उतरकर उन्‍हें पुण्‍य तो नहीं छूत के रोग अवश्‍य मिल सकते हैं।

किसी और को किसी और पर दोष थोपना हो तो थोप लो। किसी पर कुछ थोपने में कोई खर्चा थोड़ी न आता है। सब के ऊपर दोषारोपण आरोप प्रत्यारोप कर लो लेकिन भूल कर भी असली मुजरिम को कुछ भी न कहना। क्‍योंकि जानते सब हैं लेकिन पहचानता कोई नहीं है कि आख़िर कौन है असली मुजरिम जो बार-बार ऐसे धार्मिक सामाजिक जमावड़ों में भगदड़ का सूत्रपात करता है? कौन भगदड़ की वस्तुस्थिति पैदा करता है। आपको शायद अचानक याद नहीं आयेगा लेकिन मैं याद दिला देता हूँ। पागलपन की हद तक अंधश्रद्धा, अंधआस्‍था, अंधविश्‍वास, अंधाचरण, अुधानुकरण, अंधभक्ति, अंधासक्ति आदि-आदि न हो तो न फालतू का जमावड़ा हो, न भगदड़ मचे, न लोग कुचले जाएँ, न मौत का तांडव हो। याद आया कुछ, नहीं ? तो तुम्‍हारा कुछ नहीं हो सकता।  तुम ज़रूर अगली भगदड़ और मौत के तांडव के साक्षी बनने के लिए पूरी तौर पर तैयार हो। मोक्ष के दरवाजे पर अवश्‍य ही तुम्‍हारे जोर-शोर से स्‍वागत के लिए पूरी तैयारियाँ हैं। 

शनिवार, 8 फ़रवरी 2025

मोक्ष के लिए मरना काफी है

 //व्‍यंग्‍य-प्रमोद ताम्‍बट//

वे हैरान परेशान से रिजर्वेशन ऐप्स पर आ जा रहे थे, उन्होंने कई टिकट एजेंटों को भी फ़ोन लगा लिए कि उन्हें किसी तरह प्रयागराज का रिजर्वेशन मिल जाए तो कुंभ नहाँ लें और जीवन सफल हो जाए लेकिन रिजर्वेशन पाने में लगातार असफल रहने की मायूसी उनके चेहरे पर आसानी से देखी जा सकती थी। इस बीच उन्‍होंने सरकार को भी गालियाँ दे लीं कि उसकी लापरवाही की वजह से रेलवे रिजर्वेशन का ये हाल हुआ रखा है कि वह कभी आसानी से किसी को मिलता ही नहीं। मुझसे उनकी परेशानी देखी नहीं गई तो मैंने उनसे पूछा - क्या बात है, अभी इसी समय ही जाना क्यों ज़रूरी है कुंभ में? दो हफ़्ते बाद चले जाना।

वे बोले नहीं- अभी दो दिन बाद भगदड़ मचने का शुभ मुहूर्त है। तुमने सुना नहीं भगदड़ में कुचल कर मरने वालों को सीधे मोक्ष मिलता है। इसलिए मुझे तो किसी भी हालत में तुरंत कुंभ में पहुँचना है ।

मैंने कहाँ - मरने कि ऐसी ही जल्दी है तो फिर हवाई जहाज़ से चले जाओं। थोड़े पैसे ही तो ज्‍़यादा लगेंगे। आखिरी वक्‍त में भी अगर पैसे से मोह रखोगे तो फिर क्‍या फायदा ।  

वे बोले मरने की जल्‍दी नहीं, मोक्ष की चिंता है। फ्री-फंड में मोक्ष कहाँ मिलता है भाई आजकल। लेकिन समस्‍या ये है कि हवाई जहाज़ डायरेक्‍ट है नहीं । और जो घूम-फिर कर है भी उसके रेट आसमान छूने के बावजूद टिकट नहीं मिल रहा। सब मोक्ष की कामना से दौड़े पड़ रहे है प्रयागराज। हमें साली टिकट ही नहीं मिल रहीं।

मैंने कहाँ- जब मरने ही जाना है तो फिर रिजर्वेशन क्यों देख रहे हो। किसी भी गाड़ी के जनरल डिब्बे में घुस जाओ टॉयलेट के पास तो जगह मिल ही जाएगी। न हो तो किसी मालगाड़ी के डिब्‍बे पर लटक कर चले जाओ। बस-ट्रक कुछ तो मिल ही जाएगा टँग कर चले जाओ उसमें क्‍या।

वे बोले- तुम भी कमाल करते हो। जनरल बोगी में या मालगाड़ी बस-ट्रक पर लटक कर मरने से मोक्ष नहीं मिलता। कुंभ की भगदड़ में कुचलकर मरने से ही मोक्ष मिलता है। सुनी नहीं विद्वान संतों की बातें। तुम्हें कुछ पता-वता होता नहीं चले आते हो राय देने।

मैंने कहा- मोक्ष के लिए मरना ही काफ़ी है, कैसे भी मरो। बस कर्म तुम्हारे ठीक-ठाक होने चाहिए।

वे बोले- यही तो बात है। कर्म तो हमारे तुम जानते ही जो सब। सभी टाइप के पाप किए बैठे हैं अपन। मोक्ष मिलने की संभावना बिल्कुल भी नहीं है। इसीलिए इस कुंभ की भगदड़ में कुचल-मरने का शार्टकट अपनाने का मन बनाया है। भगवान ने साथ दिया तो कुछ न कुछ करके एसी फ़र्स्ट क्‍लास में नहीं तो सेकंड क्‍लास में तो टिकट मिल ही जाएगी। मोक्ष में तो फिर आनंद ही आनंद है।

मैंने पूछा - मोक्ष में क्‍या आनंद है बताइये न ज़रा।

वे बोले- पूछो मत। धरती से एकदम अलग होता है सब कुछ। कोई भागमभाग नहीं कोई दुख-दर्द नहीं। आनंद ही आनंद, सुख ही सुख। खाना-पीना और मस्‍त सोमरस का पान करते हुए सुंदर अप्‍सराओं को निहारना। देवताओं के साथ द्यूत क्रीडा का आनंद लेना। और भी बहुत कुछ होता होगा। अपने को पता नहीं है ज्‍़यादा कुछ। गए नहीं न कभी।

मैंने पूछा - द्यूत क्रीडा। यह तो जुआ हुआ। मोक्ष में जुआ ?

वे बोले - बेवकूफ हो तुम तो। द्यूत क्रीड़ा कोई पैसों से थोड़ी होती है। ऐसे ही टाइम पास के लिए होती है। पुण्‍यात्‍माओं का खेल है वो तो। वहाँ सभी खेलते हैं।

मैंने कहा - अरे यार, सोमरस, अप्‍सरा, द्यूत क्रीड़ा,  इन सबके लिए  भगदड़ में कुचलने जाना चाहते हो क्‍या? इससे तो यहीं किसी पब-डिस्‍कोथेक में जाकर सब कुछ कर लो कोई रोकता है क्‍या ? क्यों अपने प्राणों के दुश्‍मन बने हुए हो।

वे बोले - तुम बहुत ही भोले हो दोस्‍त। यहाँ यह सब करेंगे तो पैसे खर्च होंगे, वहाँ सब कुछ फ्री में है। बस कुंभ की भगदड़ में कुचल कर मर भर जाओ फिर बस आनंद ही आनंद है।   

मैंने उन्‍हें मोबाइल के साथ छोड़कर आगे बढ़ने में ही भलाई समझी। वे अब तक लगे हुए है भगदड़ के मुहूर्त के पहले का रिजर्वेशन तलाशने में।

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गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

भगदड़ से मोक्ष की ओर

 //व्‍यंग्‍य-प्रमोद ताम्‍बट//

मोक्ष भारतीयों का जागते हुए देखा जाने वाला एकमात्र स्वप्न होता है । होश सम्‍हालते ही उसे अच्‍छी मौत मरने के लाभ के तौर पर मोक्ष का स्‍वप्‍न हाथ में थमा दिया जाता है जहाँ का जीवन अल्‍टीमेट टाइप का होता है । सो मोक्ष की आकांक्षा में आदमी अच्‍छी से अच्‍छी मौत मरना चाहता है। संतों ने मरने के स्‍थान काल के बारे में भी घोषणाएँ की हुई हैं जैसे गंगा की गोद में डूब मरना अथवा उत्‍तरायण काल की मौत बेहद शुभ होती है आदि-आदि । मौत अगर गंगा किनारे बारह साल के अन्‍तराल पर आने वाले कुंभ के पावन अवसर पर मची भगदड़ में बुरी तरह कुचल कर हुई हो तो कहना ही क्या। सीधे मोक्ष का वी.वी.आई.पी. सूइट मिलना तय है। और उस सूइट में संतों द्वारा घोषित सुख-सुविधाएँ अंगूर के गुच्छे, सुरा-सुंदरी और तमाम ऐयाशी तो फिर हैये ही हैये। एक आम भारतीय को और क्या चाहिए ।

इधर अमीर-गरीब सब लोग मोक्ष की आकांशा में लाखों रुपये खर्च करके ना जाने क्या-क्या कर्मकांड कराते हैं। तमाम पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन, ब्राह्मण भोज, दान-दक्षिणा आदि-आदि में पूरा जीवन व्‍यतीत कर देते हैं । उसके बाद भी मोक्ष की फ्लाइट मिले न मिले कोई भरोसा नहीं होता। लेकिन यदि कुंभ की भगदड़ में मौत हुई हो तो मोक्ष की फ्लाइट का टिकट लेने की भी कोई ज़रूरत नहीं । उस स्पेशल चार्टर्ड फ्लाइट में ऑटोमेटिक रिजर्वेशन होता है। भगदड़ में कुचले नहीं कि सीधे फ्लाइट की आरामदेह सीट पर और फ्लाइट के क्रू की सुन्‍दरियाँ भी बिना टिकट की पूछताछ किए सीधे मोक्ष के द्वार पर छोड़ आतीं हैं। मोक्ष के द्वार पर भी कोई पूछताछ नहीं सीधे वी.वी.आई.पी. सूइट के डबल बेड पर सुवासित गुलाब की पंखुड़ियों के बिस्तर पर। मैंने तो यहाँ तक भी सुना है कि ऐसे कुंभ में कुचल कर मरे लोगों को तो परमात्मा सर से मिलने के लिए भी इंतज़ार नहीं करना पड़ता। अक्सर वे उनके वी.वी.आई.पी. सूइट के सोफे पर ही भगदड़ में कुचली आत्मा का इंतज़ार करते मिलते हैं, और पहुँचते ही मिसमिसा कर गले लगा लेते हैं। वे एक ही वक्‍त में हर सुइट में विराजमान होकर आनेवाली आत्‍मा से‍ मिल लेते हैं।

हालिया कुंभ भगदड़ के बाद कई मोक्ष के आकांक्षिओं को बेहद अफ़सोस हुआ होगा कि हाय हम क्यों न हुए भगदड़ में कुचल कर मरने के लिए। फोकट में मोक्ष पहुँचने का सुनहरा अवसर हाथ से निकल गया। संतों ने जब से भगदड़ में कुचल कर मरने वालों की मोक्ष में जगह को कन्‍फर्म किया है लोग कुंभ में जाने के लिए मरने-खपने को तैयार हुए बैठे हैं। एक और समस्या सामने आने की संभावना है। लोग दस-बीस गुणे तादात में कुंभ की और कूच कर सकते हैं । क्या मालूम अगली भगदड़ कब मच जाए और मोक्ष की  फ्लाइट  में जगह मिल जाए।

कुंभ प्रबंधन को चाहिए की मोक्ष आकांक्षिओं के लिए कुंभ पहुँचने के लिए विशेष सुविधाओं का इंतज़ाम करे और उन्‍हें भगदड़ में मरने का पूरा मौका दे। यदि अपने-आप कोई भगदड़ नहीं मचती है तब भगदड़ मचाने का व्यापक इंतज़ाम करें बल्कि समय-समय पर भगदड़ मचाए और सुरक्षा के कोई इंतज़ाम रखने की गुस्‍ताखी न करें ताकि हम जैसे लाखों फोकटिये मोक्ष के आकांक्षी आसानी से भगदड़ में कुचलकर मोक्ष का सुख भोग सकें। कभी कभार ही तो ऐसा अद्भुत योग आ पाता है कि आदमी बिना किसी प्रयास के मोक्ष की ओर निकल जाए।

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ट्रम्‍प की घास

//व्‍यंग्‍य - प्रमोद ताम्‍बट//

ट्रम्प ने हमें घास नहीं डाली। कितनी बड़ी ट्रेजडी है। इतनी बड़ी ट्रेज़डी है कि इतिहास के गोदाम में इस साइज की दूसरी कोई ट्रेजडी हरगिज़ नहीं है। इतनी बड़ी ट्रेजडी तो ट्रम्प के जानी दुश्मनों के साथ भी नहीं हुई जिन्हें घास डलने की रत्‍ती भर भी उम्मीद नहीं थी, हम तो फिर भी उसके जिगरी दोस्त थे, और हमें पूरी उम्मीद थी कि हमारे सामने घास डलेगी, पक्‍का डलेगी । फिर भी ट्रम्प ने हमें बिल्‍कुल घास नहीं डाली।

हमने घास डलवाने की बहुत कोशिश की, बहुत हाथ-पैर मारे, बहुत मिन्नतें कीं ताकि किसी तरह हमें भी ट्रम्प की घास चरने का मौका मिल जाए । लेकिन ट्रम्प नहीं पसीजा। पता नहीं कौन सा पाप हमसे हो गया कि हम ट्रम्प की घास के पहले नेचुरल हकदार होने के बावजूद अमरीकी ओर से घास हमारे पास फटकने भी नहीं दी गई।

हालांकि ट्रम्प के पास बहुत सारी घास मौजूद है। घास के बड़े-बड़े खेत-खलिहान, बड़े बड़े गोड़ाउन है उसके पास। कोई कमी नहीं उसके पास घास की। लेकिन उसने हमें नहीं डाली। पता नहीं क्यों नहीं डाली। थोड़ी सी डाल देता तो कोई कम तो पड़ जाती नहीं उसे घास ? क्या बिगड़ जाता उसका अगर तनिक सी हमें भी डाल देता । हम कौन उसकी घास खाकर भाग रहे थे।

ट्रम्प के पास भाँति-भाँति की घास है। हरी-हरी चाहो तो हरी-हरी। सुनहरी चाहो तो सुनहरी, सूखी सट्ट, जिसे भूसा कहते हैं वह भी। और तो और रंग-बिरंगी बेहद आकर्षक डिज़ाइनर घास भी है उसके पास। कमबख़्त डालता तो हम कितने अच्छे से घास चरते। दुनिया देखती कि हमारी घास चराई भी क्या घास चराई है। लेकिन हमारी क़िस्मत में ही नहीं थी ट्रम्प की घास, इसलिए तो उसने ज़रा सी भी नहीं डाली ।  

इतनी सारी घास है ट्रम्प के पास कि वह बैठे-बैठे सारी दुनिया को चरा सकता है और उसने चराई भी । बस हमें चराना भूल गया। जाने कैसे भूल गया। बादाम तो हम बहुत एक्सपोर्ट कर रहे हैं अमेरिका को। फिर भी भूल गया। चराना भूल गया या जानबूझकर नहीं चराई यह तो वही जाने परंतु वह मेहरबानी करके हमें भी थोड़ी सी घास डाल देता तो उसके बाप का क्या कुछ चला जाता?

ट्रम्प घास डालता तो हम बड़ी शिद्दत से उसे चरते। तिनका-तिनका चर-चर कर हम घास को पूरा चर जाते। एक दाना भी ज़मीन पर नहीं छोड़ते कि कोई और आकर उसे चर जाए। हम घास के एक-एक तिनके का पूरा मान रखते और पूरे सम्मान के साथ उसे उदरस्‍त करते। हम घास को रबड़ी-मलाई की तरह चाट-चाटकर पूरा चट कर जाते। पूरी दुनिया को नाच-गाकर बताते कि हमें ट्रम्‍प की घास चरने का मौक़ा मिला है और हम उसे रबड़ी-मलाई की मानिंद चट कर गए हैं । दुनिया एक नये और मानीखेज़ मुहावरे का लुत्फ उठाती - ट्रम्प की घास चाटना। हिंदी के मुहावरा कोश में एक और मुहावरे की वृद्धि होती। हिंदी समृद्ध होती। कुछ लोग ज़रूर इस मुहावरे में से घासशब्द का लोप करके अर्थ का अनर्थ करते लेकिन हम उसकी कतई चिंता नहीं करते। हम चरते। पूरी घास को रबड़ी-मलाई की तरह चट कर जाते।

ट्रम्प की घास का स्वाद भी कोई काजू-किसमिस से कम नहीं । चरो तो ऐसा लगता है मानो ड्रायफ्रूट का भंडार चर रहें हो। लेकिन ट्रम्प की घास डलती हमारे सामने तब न हम ड्रायफ्रूट का लुत्फ उठा पाते । डाली ही नहीं घास कमबख्‍त ट्रम्प ने। हम मायूस हैं । बहुत मायूस हैं लेकिन बता दें कि हतोत्साहित बिल्‍कुल नहीं हैं। हम कोशिश करेंगे। निरंतर कोशिश करेंगे। मरते दम तक कोशिश करते रहेंगे की ट्रम्प हमें घास डाले और हमें भी उसकी घास चरने का स्‍वर्णिम अवसर मिल सके। देर-सवेर कभी न कभी तो वह अवसर मिल ही जाएगा।

देखो भैया, जब तक हमारा देश एक बड़ी चरागाह है, और हम उसके चरवाहे हैं, तब तक कोई हमें घास डाले या ना डाले, उसे झक मार कर हमारे यहाँ चरने तो आना ही पड़ेगा। हम भी देखेंगे कि यह ट्रम्‍प का बच्‍चा कब तक हमें घास नहीं डालता । हमारी चरागाह को चरने की अगर रत्‍ती भर भी साम्राज्‍यवादी तमन्‍ना है तो उस‍के तो बाप को भी हमें घास डालना पड़ेगी। देखते हैं कैसे नहीं डालता।

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शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

फर्ज़ी डिग्री के दम पर

//व्यंग्य -प्रमोद ताम्बट//

दुनिया के तमाम मुल्‍कों ने तमाम क्षेत्रों में तरक्‍की की है, हमने शिक्षा के क्षेत्र में झंडे गाड़े हैं। झंडे भी कोई ऐसे वैसे नहीं गाड़े, हमारे गाड़े झंडे दुनिया के किसी भी कोने से बड़ी आसानी से फरफराते नज़र आ सकते हैं, अगर बंद आँख से भी देखने की कोशिश की जाए। यहाँ तक कि ये झंडे धुर उत्‍तरी और दक्षिणी ध्रुवों से भी साफ-साफ दिखाई दे जाएँ, चाहे कितनी भी बर्फबारी हो रही हो।

अंग्रेजों के ज़माने में जब लॉर्ड मैकाले ने भारतीय शिक्षा पद्धति को डिज़ाइन करने के लिए अपना सिर खपाया तब उसने ख्‍वाब में भी नहीं सोचा होगा कि कालान्‍तर में दुनिया भर की शिक्षा व्‍यवस्‍थाएँ उसकी डिजाइन की हुई भारतीय शिक्षा व्‍यवस्‍था से इस बुरी तरह पिछड़ जाएँगी कि कोई सपने में भी न सोच सके। बताइये भला, बिना किताबों का बोझ ढोए, बिना स्‍कूल-कॉलेज जाए, बिना पढ़े-लिखे, बिना परीक्षा दिए, बिना पास हुए, घर बैठे आदमी ग्रेजुएट-पोस्‍ट ग्रेजुएट, डाक्‍टर-इन्‍जीनियर की डिग्रियाँ हासिल कर ले, डाक्‍टरेट-वाक्‍टरेट भी कर मारे, इससे क्रांतिकारी उपलब्धि और क्‍या हो सकती है? दूसरा कोई बड़ा से बड़ा मुल्‍क हमारी इस अद्भुत उपलब्धि के आसपास भी नहीं फटक सकता।

एक बात तो सोलह आना सच है कि प्रिटिंग मशीन के अविष्‍कार ने दुनिया को बस मोटी-मोटी किताबों का बोझ ही दिया है जिस कारण टेढ़ी कमर वाले छात्रों की पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ अस्तित्‍व में आती जा रही थी। मगर हमने उस प्रिटिंग मशीन पर फर्ज़ी डिग्रियों की बल्‍क छपाई करवाकर अपने छात्रों के सर पर उस बोझ का साया भी नहीं पड़ने दिया। फर्ज़ी डिग्रियों की छपाई के इस कौशल से हमने शिक्षा को तो स्‍तरीय बनाया ही बनाया है, छपाई की कला में भी हम इस कदर सिद्धहस्‍त हुए हैं कि एक बार असली डिग्री को आसानी से नकली डिग्री साबित किया जा सकता है परन्‍तु हमारी छापी गई नकली डिग्री को नकली डिग्री साबित करने में बड़े-बड़े विशेषज्ञों को भी नाकों चने चबाना पड़ जाता है। अब यही देखिए, हाल ही में कुछ बावले हमारे प्रिय प्रधानमंत्री की डिग्रियों को नकली साबित करने पर तुले हुए थे लेकिन शर्तिया यह पक्‍की बात है कि वे डिग्रियाँ शत-प्रतिशत असली हैं। असली हैं इसीलिए बावले उनमें दर्जनों मीनमेख निकाल पा रहे थे, अगरचे वे नकली होतीं तो कोई माई का लाल उनमें रत्‍ती भर का भी मीनमेख नहीं निकाल पाता।   

किताबी कीड़ों का दुनिया भर में हमेशा आतंक रहा है। कम्‍बखत सारी डिग्रियाँ खुद ही हड़प लिया करते रहे हैं। न केवल डिग्रियाँ बल्कि आई..एस, आई.पी.एस से लेकर चपरासी तक की नौकरी पर इन्‍हीं का कब्‍ज़ा रहता आया है। हमने देश को इस कलंक से मुक्ति दिला दी। हमने नकल संस्‍कृति के तूफानी विकास और विस्‍तार के साथ-साथ देश के कोटि-कोटि नालायकों तक फर्ज़ी डिग्रियों की सप्‍लाई सुलभ करवाई ताकि वे भी सम्‍मानजनक नौकरियों में जाकर देश सेवा करें और गौरवान्वित महसूस कर सकें। कुछ प्रतिभाशाली लोगों ने तो इन्‍हीं फर्ज़ी डिग्रियों के प्रताप से देश की राजनीति का मान बढ़ाने में प्रचंड सफलता पाई है। जबकि असली डिग्री वाले लाखों उल्‍लू के पट्ठे छात्र दर-दर भटक रहे हैं। वे भी अगर अपनी असली डिग्री को आग के हवाले कर के नकली डिग्री जुगाड लेते तो अब तक तो न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाते।  

एक ज़माना था जब लोग फर्ज़ी शब्‍द से थर-थर कॉपते थे और चुपचाप शराफत के लिबास में लिपटे स्‍कूल-कॉलेज और यूनिवर्सिटीज़ में पढ़-पढ़ कर चश्‍में वालों का धंधा चमकाया करते थे। फर्ज़ी डिग्रियाँ दूर की कौड़ी होती थीं लिहाज़ा हाड़ तोड़ मेहनत और मशक्‍कत करके असली डिग्री की भीख सी माँगनी पड़ती थी। हमने परिस्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया। डिग्रियों को चना जोर गरम और मुँफली के ढेर की तरह गली-गली में बेचने के लिए पहुँचवा दिया । जिसको जो विषय पसंद हो, आओ, पैसा फैको, डिग्री तुलवाओ और चलते बनो।

हमारा दृढ़ संकल्‍प है कि भविष्‍य में हम अपनी सेवाओं का व्‍यापक विस्‍तार करेंगे। हमारे आदमी साथ में डिग्रियों का कैटलॉग लेकर घर-घर जाकर लोगों की पसन्‍द की‍ डिग्रियाँ बेचेंगे। ऑन लाइन खरीदारी की सुविधा भी हम शीघ्र ही चालू करने वाले हैं। आप समुचित ऑफलाइन-ऑनलाइन भुगतान कर अपनी मन पसन्‍द डिग्री, अपनी सुविधा के वर्ष और कॉलेज-यूनिवर्सिटी के हिसाब से हमारी साइट से सीधे डाउनलोड कर सकेंगे।

सचमुच, शिक्षा के क्षेत्र में यह एक युगान्‍तरकारी पड़ाव है। हमने कसम खाई है कि मैकाले की शिक्षा पद्धति के पारम्‍परिक ढाँचे को चूर-चूर करके एक नई रोशनी का मार्ग प्रशस्‍त करेंगे। दुनिया की किसी भी यूनिवर्सिटी के किसी भी कोर्स की फर्ज़ी डिग्रियों के दम पर हम अपने इस देश को दुनिया का सिरमोर बना कर ही दम लेंगे।                  

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